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________________ २५० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जंगल हो या पर्वत, आश्रम हो या नगर सर्वत्र ही भवितव्यता के लिए द्वार खुले रहते हैं। सर्वत्र विद्यमान भवितव्यता या नियति ही राजा दुष्यन्त को शुकन्तला से संयोग करवाने हेतु कण्व ऋषि के आश्रम में ले गई थी। इसी नियति ने उसका शकुन्तला से वियोग कराकर पुन: योग कराया। अत: महाकवि कालिदास कहते हैं- 'भवितव्यता खलु बलवती५ भर्तृहरिविरचित नीतिशतक में नियति महाकवि भर्तृहरि मानते हैं कि मानव के भालपट्ट पर ब्रह्मा ने जो थोड़ा अथवा अधिक धन लिख दिया है, उसे मनुष्य रेगिस्तान में भी सरलता से प्राप्त कर लेता है। अधिक धन का भाग्य न होने पर वह चाहे सुमेरु पर्वत पर क्यों न चला जाए, उसे प्राप्त नहीं होगा। उदाहरण के रूप में घट की स्थिति को देखा जा सकता है। पानी लेने हेतु घट को कुएँ में डाला जाए अथवा अगाध जल राशि वाले समुद्र में डाला जाए, वह सदा ही अपनी क्षमता जितना ही जल ले पाएगा। इसी प्रकार जितना भाग्य में धन लिखा होगा उतना ही मनुष्य को प्राप्त होगा, अधिक नहीं।५६ इस जगत् में मानवों की उन्नति और अवनति का कारण भाग्य ही होता है। जैसे कि इस प्रसंग से प्रतीत होता है- कोई सर्प अपने जीवन से अत्यन्त निराश हुआ किसी सपेरे की बाँस की पिटारी में सिकुड़े हुए शरीर वाला होकर भूख से छटपटा रहा था। सर्प की पुन: स्वतंत्र होने की सभी आशाएँ नष्ट हो गई थीं। तभी अचानक एक चूहा दाँतों से उस पिटारी में छेद करके स्वयं सर्प के मुख में आ गया। उस सर्प ने चूहे को खाकर भूख मिटाई और चूहे द्वारा बनाए गए मार्ग से शीघ्र बाहर निकल गया। अत: यह निश्चित होता है कि भाग्य के अतिरिक्त कोई भी मनुष्य की उन्नति तथा अवनति का कारण नहीं बन सकता है। इससे फलित होता है कि भाग्य के कारण ही परतन्त्र व्यक्ति मुक्ति पा सकता है तथा स्वतन्त्र व्यक्ति आपत्तियों में फँस सकता है। मानव को प्रारब्धानुसार ही सब कुछ प्राप्त होता है। व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक दुष्कर कार्यों को कर सकता है, परन्तु कार्यों का फल भाग्यानुसार ही मिलता है।५८ हितोपदेश एवं पंचतन्त्र में भवितव्यता ___ हितोपदेश में कहा गया है- 'यदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा अर्थात् जो भवितव्य नहीं है वह किसी स्थिति में नहीं होगा और जो भवितव्य है वह अन्यथा नहीं होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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