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________________ नियतिवाद २४९ जितने परिणाम प्राप्त होते हैं, जिनका कोई कारण समझ में नहीं आता, वे सब दैव के ही कार्य हैं। ४७ महाभारत में नियति का स्वरूप वेदव्यास ने नियति के स्वरूप को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया है 'यथा यथास्य प्राप्तव्यं प्राप्नोत्येव तथा तथा । भवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथा तथा।। ,४८ अर्थात् पुरुष को जो वस्तु जिस प्रकार मिलने वाली होती है, वह उस प्रकार मिल ही जाती है। जिसकी जैसी होनहार होती है, वह वैसी होती ही है। यही नियति है। कुछ लोग तो इसे सभी कार्यों की सिद्धि में कारण मानते हुए कहते हैं- 'दैवनैके वदन्त्युत *९ नियतिवादी मानते हैं कि जगत् में जितने भी पुरुषकृत कार्य हैं उन सभी के पीछे दैव निमित्त है और दैववश ही देवलोक में बहुत से गुण उपलब्ध होते हैं। " ४९ ५० उत्तम कुल में जन्म, पुरुषार्थ, आरोग्य, सौन्दर्य, सौभाग्य, उपभोग, अप्रिय, वस्तुओं के साथ संयोग, अत्यन्त प्रिय वस्तुओं का वियोग, अर्थ, अनर्थ, सुख और दुःख - इन सबकी प्राप्ति प्रारब्ध के विधान के अनुसार होती है। यहाँ तक कि प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ और हानि में भी प्रारब्ध ही प्रवृत्त होता है । ५१ जीव की मृत्यु के कई निमित्त होते हैं, यथा- रोग, अग्नि, जल, शस्त्र, भूख प्यास, विपत्ति, विष, ज्वर और ऊँचे स्थान से गिरना आदि। इन निमित्तों में से प्रत्येक जीव के लिए नियति द्वारा जन्म के समय ही नियत कर दिया जाता है और अन्त में वही उसकी मृत्यु का हेतु बनता है । ५२ दक्ष-पुरुषार्थी मनुष्यों के द्वारा सम्यक् प्रकार से किया गया प्रयत्न भी दैव रहित होने पर निष्फल हो जाता है तथा उस कार्य को अन्य प्रकार से किए जाने पर भी वह भाग्यवश और ही प्रकार का हो जाता है। अतः निश्चय ही दैव प्रबल और दुर्लघ्य है । दैव की इस प्रबलता को स्वीकार कर यह समझना चाहिए कि होनहार ही ऐसी थी, इसलिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौनसा पुरुष है, जो अपनी बुद्धि की विशेषता से होनहार को मिटा सकता है अर्थात् कोई नहीं | " संस्कृत साहित्य में नियति का विशेष रूप ५३ अभिज्ञानशाकुन्तल में भवितव्यता के रूप में नियति ४ 'भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ** शाकुन्तल की यह सूक्ति भवितव्यता की सार्वकालिकता एवं सार्वभौमिकता को प्रकट करते हुए बताती है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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