SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण तस्माद् राज्यं प्रति विभो न ज्वरं कर्तुमर्हसि । अवश्यं भाविनो ह्यर्था न विनश्यन्ति कर्हिचित् । । " अर्थात् हे दानव ! निश्चय ही तुम्हारा ऐसा भविष्य था । इसी से विवेक का प्रतिबंधक महामोह मुझमें प्रविष्ट हुआ था। अतः हे विभो ! राज्य के लिए दुःख मत करो। अवश्यम्भावी विषय कदापि विनष्ट नहीं होते । इस प्रकार वामन पुराण में स्वीकार किया गया है कि भवितव्यता की प्रबलता के अनुसार ही वर्तमान में वैसे निमित्त प्राप्त होते हैं। नारदीय पुराण में कहा है कि यह समस्त स्थावर और त्रस जगत् दैव के आधीन है। इसलिए दैव ही जन्म और मृत्यु को जानता है, दूसरा नहीं । जैसाकि कहा है दैवाधीनमिदं सर्व जगत्स्थावरजंगमम्। ४२ तस्माज्जन्म च मृत्युं च दैवं जानाति नापरः । दैवाधीनं जगत्सर्व सदेवासुरमानुषम्।।" देव, असुर और मनुष्यों से युक्त समस्त जगत् दैव के आधीन है । इस दैव, नियति या भवितव्य को स्वीकार करने पर किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती हैयद्भावि तद्भवत्येव यदभाव्यं न तद्भवेत् इति निश्चितबुद्धीनां न चिंता बाधते क्वचित्। " रामायण में नियति की कारणता रामायण में भी नियति की कारणता दृष्टिगोचर होती है। बाली की मृत्यु के पश्चात् भगवान श्री राम, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि को सांत्वना प्रदान करते हुए कहते हैंनियतिः कारणं लोके, नियतिः कर्मसाधनम् । नियतिः सर्वभूतानां नियोगेष्विह कारणम् ।। .४५ जगत् में नियति ही सबका कारण है। नियति ही समस्त कर्मों का साधन है। नियति ही समस्त प्राणियों को विभिन्न कर्मों में नियुक्त करने में कारण है। नियति की गति ऐसी है कि वह धन से, इच्छा से, पुरुषार्थ से अथवा आज्ञा से किसी के टाले नहीं टल सकती। इसके सामने सारे पुरुषार्थ निरर्थक हैं। इसलिए भाग्य ही सबसे उत्कृष्ट है और सब कुछ इसके अधीन है। भाग्य की गति परम है। ४६ सुख-दुःख, भय - क्रोध, लाभ-हानि, उत्पत्ति और विनाश तथा इस प्रकार के और भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy