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________________ नियतिवाद २४७ श्वेताश्वतरोपनिषद् का यह मंत्र प्रमाणित करता है कि वैदिक काल में नियतिवाद नामक एक सिद्धान्त अस्तित्व में था। यह नियतिवाद एकान्त रूप से नियति को ही कारण मानता था। नियति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए शंकराचार्य ने शांकरभाष्य में कहा है- 'नियतिरविषमपुण्यपापलक्षणं कर्म तद्वा कारणम्। अर्थात् पुण्य-पाप रूप जो अविषम कर्म हैं, वे नियति कहे जाते हैं। अविषम कर्म से तात्पर्य जिनका फल कभी विपरीत नहीं होता। महोपनिषद् एवं भावोपनिषद् में भी नियति शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है 'नियतिं न विमुंचन्ति महान्तो भास्करा इव' -महोपनिषद्'५ 'नियतिसहिताः शृंगारादयो नव रसाः' -भावोपनिषद् उपनिषद् के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि नियति एक नियामक तत्त्व है। जिसके अनुसार विभिन्न घटनाएँ घटित होती हैं। महोपनिषद् के वाक्य में कहा गया है कि जिस प्रकार सूर्य नियति को नहीं छोड़ता है, नियत समय पर उदय एवं अस्त को प्राप्त होता है। उसी प्रकार महान् पुरुष नियति के नियामकत्व को नहीं छोड़ते हैं। भावोपनिषद् के उद्धरण में कहा गया है कि शृंगार आदि नौ रस नियतियुक्त हैं। अर्थात् जिन भावों से जो रस प्रकट होना होता है वही प्रकट होता है। पुराणसाहित्य में नियति एवं उसके पर्याय हरिवंशपुराण में भवितव्यता की प्रामाणिकता अनेक श्लोकांशों में दृग्गोचर होती है। कंस ने अपने स्वजनों की हत्या करने के बाद पश्चात्ताप करते हुए देवकी से कहा- "मैं बड़ा निर्दय हूँ और मैंने अपने प्रियों का ही शमन किया, क्योंकि विधि ने जो भाग्य में लिख दिया उसे मैं किसी प्रकार भी परिवर्तित नहीं कर सका।"३" कंस का यह कथन हरिवंश पुराण में अन्यत्र आई 'दुर्वारा हि भवितव्यता ८ 'दुर्लभ्यं भवितव्यता उक्तियों से पुष्ट होता है। इसलिए कहा गया है- 'दैवमेव परलोके धिक् पौरुषमकारणम्' अर्थात् दैव और पुरुषार्थ में दैव ही परम बलवान है। संसार में इस अकारण पुरुषार्थ को धिक्कार है। ... वामन पुराण में दानवपति प्रह्लाद विष्णु की निन्दा करने पर बलि को राज्य-नाश का अभिशाप देते हैं। बलि के क्षमा मांगने पर वे भाग्य की निश्चितता या अपरिवर्तनशीलता को बताते हुए कहते हैं नूनमेतेन भाव्यं वै भवतो येन दानव। ममाविशन्महाबाहो विवेकप्रतिषेधकः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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