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२४६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
यदैव यद्यावदथो यतो वा तदैव तत्तावदथो ततो वा। प्रजायतेऽस्मिन्नियतं नियत्याक्रान्तं हि पश्याम इदं समस्तम्।।२८
जब भी, जो, जितना, जिससे, जैसे हुआ है, तब ही, वह उतना, उससे, वैसे ही होता है। इस प्रकार इस संसार में सब कुछ नियत रूप से उत्पन्न होता है और नियति से आक्रान्त ही सब कुछ प्राप्त होता है। उदाहरण से स्पष्ट करते हुए पं. ओझा ने कहा है
पुरा तिलात् तैलमजायतैव तज्जायतेऽद्यापि जनिष्यते च।
अत्रापि जातं बहुदूरदेशान्तरेऽपि तत् तद्वदुपैति जन्म।।"
प्राचीन काल में भी तिलों से तेल होता था, आज भी होता है और भविष्य में भी होता रहेगा। यहाँ भी तिलों से तेल होता है तथा दूर-देशान्तरों में भी होता रहेगा। नियति के इस नियम से ही सर्वत्र पदार्थ की उत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह है कि तिलों से तेल का होना एक नियत सार्वभौम तथ्य है, जिसके साथ काल विशेष और देश विशेष का प्रतिबंधक संबंध नहीं है।
नियतिवादियों के अनुसार सभी भाव नियत रूप से होते हैं। ईश्वर हो, अणु हो अथवा अन्य कोई भी हो सब नियति के वश में है। प्राचीन काल में पूरणकश्यप आदि कतिपय विचारकों ने नियति को विश्व का मूल बताया है और यदृच्छावादियों के मत का उन्मूलन किया है।३१
पं. मधुसूदन ओझा द्वारा विरचित ब्रह्मचतुष्पदी के 'विराट' परिच्छेद में नियति को शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया गया है। उन्होंने प्रत्येक वस्तु के धर्म को सत्य तथा उसकी शक्ति को नियति के रूप में स्थापित किया है
स एष सत्यः प्रतिवस्तुधर्मः शक्तिश्च सैषा नियतिः प्रसिद्धा। नोल्लङय शक्तिं नियतिं च किंचित् करोति वा जीवति वा कथंचित्।।३२ ।
प्रत्येक वस्तु का धर्म सत्य है और उसकी शक्ति नियति के रूप में प्रसिद्ध है। नियति शक्ति का उल्लंघन करके न कोई कुछ कर सकता है और न ही कोई जी सकता है। उपनिषदों में नियतिवाद
वेदों के सार उपनिषदों में नियतिवाद का उल्लेख प्राप्त होता है। 'काल: स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। २३
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