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________________ नियतिवाद २४५ प्रदक्षिणा कर ऊपर आकाश में चली जाती है तथा वहाँ से पुनः लौटकर उसी मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। श्रमणनिर्ग्रन्थों की गोशालक से धर्मचर्चा गोशालक के तेज को लुप्त और विनष्ट देखकर भगवान ने श्रमणों को गोशालक से धर्मसंबंधी वाद-विवाद करने का आदेश दिया। श्रमण निर्ग्रन्थों ने गोशालक के साथ धर्मचर्चा की और विभिन्न युक्तियों, तर्को और हेतुओं से उसे निरुत्तर कर दिया। इससे प्रभावित होकर आजीवक स्थविर भगवान महावीर के आश्रय में रहने लगे। इस प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों ने लोगों के हृदय में जिनमत को स्थापित किया। व्याख्याप्रज्ञप्ति के इस उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर के समय ही आजीवक-सम्प्रदाय के लोग निर्ग्रन्थ(जैन) परम्परा में सम्मिलित होने लगे थे। गोशालक को सम्यक्त्व की प्राप्ति और स्वर्गगमन मरणासन्न गोशालक को जब मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि- "मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता रहा हूँ। ऐसा चिन्तन करने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। उसने अपने शिष्यों से कहा कि असत्कारपूर्वक मेरे मृत शरीर का निष्क्रमण करना। मरणोपरान्त उनके कहे अनुसार शिष्य तीन बार उनके मुख में थूककर, रस्सी से घसीटते हुए, धीमे स्वरों में उसकी निन्दा करते हुए श्रावस्ती नगरी के मार्ग से ले गए। फिर उनके मृत शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से नहलाया और महान् ऋद्धिसत्कारसमुदाय के साथ मृत शरीर का निष्क्रमण किया। भगवान महावीर से गणधर गौतम द्वारा प्रश्न किए जाने पर भगवान ने बताया कि गोशालक का जीव अच्युतकल्प देवलोक में उत्पन्न होगा तथा अनेक भवभ्रमण कर अन्त में मोक्ष प्राप्त करेगा। वैदिक वाङ्मय में नियति की चर्चा : पं. ओझा का मत नियतिवाद के संबंध में किसी प्रकार का संकेत वेद में प्राप्त नहीं होता, किन्तु पं. मधुसूदन ओझा ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका से नासदीय सूक्त के आधार पर जगदुत्पत्ति के संबंध में दश वाद प्रस्तुत किए हैं। उसमें अपरवाद के अन्तर्गत स्वभाववाद को चार रूपों में प्रस्तुत करते हुए नियतिवाद को उसका एक रूप बताया है तथा उसका स्वरूप निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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