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२४४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
२. अलाभ ३ सुख ४. दुःख ५. जीवन और ६. मरण। लोगों के जीवन की इन छह बातों का उत्तर वह अष्टांग महानिमित्त शास्त्र के माध्यम से देता था । २४ तेजोलेश्या प्राप्ति के बाद मंखलिपुत्र गोशालक के पास ६ दिशाचर शिष्यभाव से दीक्षित हुए - १. शोण २. कनन्द ३. कर्णिकर ४. अच्छिद्र ५. अग्निवैश्यायन ६. गौतम (गोमायु) - पुत्र अर्जुन। इन्होंने आजीवक मत का खूब प्रचार-प्रसार किया । २५
गोशालक को 'जिन' होने का भ्रम तथा असत्प्ररूपण
गोशालक अहंकारवश प्रलाप करता है और स्वयं को 'जिन' कहता हुआ नगर में भ्रमण करता है। जब वह भगवान द्वारा अपने अजिनत्व का प्रकाशन सुनता है। तो कुपित हो जाता है। एक बार कुपित होकर वह भगवान की सभा में गया और कहा - "जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा शिष्य था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात ( पवित्र परिणाम वाला) होकर काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चुका है। मैं तो कौण्डिन्यायन गोत्रीय उदायी हूँ। मैंने गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवाँ परिवृत्त परिहार (शरीरान्तर प्रवेश ) किया है।"
“हे आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं अथवा सिद्ध होंगे, वे सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प ( कालविशेष), सात दिव्य (देवभव), सात संयूथ - निकाय, सात संज्ञीगर्भ (मनुष्य - गर्भावास), सात परिवृत्त - परिहार (उसी शरीर में पुनः पुनः प्रवेश - उत्पत्ति) और पाँच लाख, साठ हजार छह सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे। २६ इस प्रकार मुक्ति प्रक्रिया बताते हुए मंखलिपुत्र गोशालक को स्वयं से भिन्न सिद्ध करता है।
भगवान महावीर और उनके शिष्यों पर गोशालक का कोप
भगवान महावीर उसकी बात अस्वीकार करते हुए कहते हैं- "तुम वही मंखलि गोशालक हो, अन्य नहीं ।" तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर आक्रोशपूर्ण वचनों से भगवान की भर्त्सना, अपमान, तिरस्कार करता है । वहाँ उपस्थित सर्वानुभूति अणगार और सुनक्षत्र अणगार उसका प्रतिकार करते हैं तो मंखलि गोशालक उन पर तेजोलेश्या का प्रहार कर उनको भस्म कर देता है। उसके इस कृत्य पर भगवान उसको सदुपदेश देते हैं, किन्तु वह इस बात से अत्यधिक क्रुद्ध होकर तेजोलेश्या से भगवान पर प्रहार करता है। तेजोलेश्या का प्रभाव भगवान महावीर पर नहीं होता । तेजोलेश्या उनकी
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