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________________ नियतिवाद २४३ तिल के पादप की घटना और नियतिवाद सिद्धार्थग्राम नगर से कूर्मग्राम नगर की ओर जाते समय तिल के एक पौधे को देखकर गोशालक ने भगवान से दो प्रश्न पूछे- १. क्या यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा? २. इसके सात तिल पुष्पों से जीव मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे? भगवान ने उत्तर दिया- यह निष्पन्न होगा और ये सात तिल के फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में उत्पन्न होंगे। गोशालक ने भगवान की वाणी को मिथ्या करने हेतु उस तिल के पौधे को मिट्टी सहित समूल उखाड़ एक ओर फैंक दिया। फिर वह भगवान के साथ आगे प्रस्थान कर गया। कुछ ही देर बाद आकाश में बादल आए और बरस गए। जिससे तिल का पौधा पुनः वहीं स्थापित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मरकर पुन: उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए। कुछ दिनों पश्चात् कूर्मग्राम से पुनः सिद्धार्थग्राम की ओर जाते हुए उस स्थान के निकट आए, जहाँ वह तिल का पौधा था। उस स्थान पर तिल का पौधा न देखकर मंखलि ने भगवान से कहा कि आपकी बात मिथ्या सिद्ध हुई। तब भगवान ने कुछ दूरी पर विकसित तिल के पौधे को दिखाकर बताया कि यह वही तिल का पौधा है जिसको उखाड़कर तूने यहाँ फैंका था और बरसात से वह पुनः पनप गया। इस प्रकार यह तिल का पौधा निष्पन्न हुआ तथा वे सात फूल के जीव इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए। इस प्रकार हे गोशालक! वनस्पतिकायिक जीव मरकर उसी वनस्पतिकायिक के शरीर में पुनः उत्पन्न हो जाते हैं। इस बात पर अश्रद्धा होने से वह गोशालक उस तिल के पौधे के पास पहँचा और उसकी तिलफली को तोड़कर उसमें से तिल बाहर निकाले। उन्हें संख्या में सात देखकर उसे यह निश्चय हो गया कि जीव मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हुए हैं। इसके बाद वह भगवान से अलग होकर अपना नया आजीवक मत का प्रचार करने लगा। पूर्वोक्त प्रकरण से अनुमान किया जा सकता है कि संभवत: इसी घटना प्रसंग को आधार मानकर गोशालक ने सभी वस्तुओं को नियतिकृत मान लिया तथा इसी मूल से आजीवक मतरूपी वृक्ष विकास को प्राप्त हुआ। निमित्तज्ञ गोशालक की परम्परा का प्रवर्तन ___ अष्टांग महानिमित्तों का ज्ञाता मंखलिपुत्र गोशालक सभी प्राणों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों के लिए छह अनतिक्रमणीय विषय बताता था। १. लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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