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________________ २४२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण माता-पिता का परिचय, जन्मस्थान एवं आजीविकोपार्जन गोशालक के पिता मंखली और माता भद्रा थी । भिक्षावृत्ति द्वारा अपना जीवन यापन करते हुए मंखली व भद्रा क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए शरवण नामक सन्निवेश के गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला में आए। वर्षावास के अनन्तर भद्रा ने एक सुकुमार पुत्र को जन्म दिया। वह भी बड़ा होकर मंख वृत्ति (भिक्षा वृत्ति) से अपना जीवन व्यतीत करने लगा। महावीर से प्रथम मिलन एवं उनका शिष्यत्व वह ग्रामों में विचरण करता हुआ राजगृह नगर के नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में तन्तुवाय शाला में रुका। यहीं भगवान महावीर के साथ गोशालक का प्रथम समागम हुआ। फिर वह भगवान के साथ विचरण करने लगा। विजय गाथापति के घर में भगवत्पारणा और पंचदिव्य प्रादुर्भाव देखकर वह भगवान से अत्यधिक प्रभावित हुआ, तब उसने कहा- 'तुब्भे णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहं णं तुब्भं धम्मंतेवासी " अर्थात् भगवन्! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्मशिष्य हूँ। उसके पुनः पुनः कहने पर भगवान ने उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया । २२ तक गोशालक भगवान महावीर के साथ विचरण करता रहा। भगवान द्वारा तेजोलेश्या से गोशालक का बचाव R ६ वर्ष एक बार भगवान विचरण करते हुए गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में पधारे। वहाँ वेश्यायन नामक तपस्वी निरन्तर छठ - छठ (दो-दो उपवास) तप तथा कर्म करने के साथ-साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रखकर सूर्य के सम्मुख खड़े होकर आतापन भूमि में आतापना ले रहे थे। अपने सिर से नीचे गिरती हुई जुओं को दयावश पुनः वे तपस्वी मस्तक पर रख रहे थे। “क्या आप तत्त्वज्ञ या तपस्वी मुनि हैं या जुओं के शय्यातर हैं?" इस प्रकार दो-तीन बार कहकर गोशालक ने उनको छेड़ा तो कुपित होकर उन्होंने उस पर तेजोलेश्या छोड़ दी। अनुकम्पा के भाव से भगवान ने उस तेजोलेश्या के प्रतिसंहरण हेतु शीतल तेजोलेश्या छोड़ी। जिससे उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ और गोशालक बच गया। तेजोलेश्या - प्राप्ति की विधि पूछने पर भगवान बतलाते है- " गोशालक ! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक चुल्लू भर पानी से निरन्तर बेले- बेले के तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रखकर आतापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है। १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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