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________________ नियतिवाद २४१ प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने द्वादशारनयचक्र में, शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) ने सूत्रकृतांग टीका में, अभयदेवसूरि (१०वीं शती) ने तत्त्वबोधविधायिनी में और नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि (११वीं शती) व ज्ञानविमलसूरि ने प्रश्नव्याकरण की टीका में सबल तकों द्वारा नियतिवाद को मिथ्या सिद्ध किया है। ___बीसवीं शती में क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप चतुष्टय से समुदित कार्यव्यवस्था को 'नियति' कहा है। काल की अपेक्षा से नियति को काललब्धि भी कहा जा सकता है। काललब्धि जैन पारिभाषिक शब्द है जो नियति या काल की कथंचित् कारणता को मान्य करता हुआ पुरुषार्थ आदि के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। अध्याय में कथंचित् नियति को जैन दर्शन में स्वीकार करते हुए काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय को एकान्त नियतिवाद से पृथक् सिद्ध किया गया है, क्योंकि जैन दर्शन में नियति को कारण मानते हुए भी उसमें काल, स्वभावादि अन्य कारणों को भी स्थान दिया गया है। नियतिवाद के साथ पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ पर भी चिन्तन किया गया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के चतुष्टय से नियति को व्याख्यायित किया गया है। स्वयम्भूस्तोत्र-तत्त्वप्रदीपिका में उपादान शक्ति को भवितव्यता का नाम दिया गया है और कहा गया है'अलङ्घ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा२° अर्थात् उपादान और निमित्त इन दोनों हेतुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले कार्य से जिसका ज्ञान होता है, ऐसी भवितव्यता दुर्निवार है। आचार्य महाप्रज्ञ ने नियति को जागतिक नियम, सार्वभौम नियम या यूनिवर्सल लॉ के रूप में समादत किया है। यहाँ नियतिवाद के प्ररूपक गोशालक का परिचय देने के अनन्तर वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण-महाभारत, संस्कृत काव्य, नाटक आदि विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर नियतिवाद का प्रतिपादन करते हुए बौद्ध और जैनदर्शन में मान्य 'नियति' के स्वरूप की चर्चा की जाएगी। फिर जैन दर्शन के ग्रन्थों में चर्चित नियतिवाद का निरूपण कर उनका निरसन प्रस्तुत किया जाएगा। नियतिवाद के प्ररूपक गोशालक- एक परिचय जैनागम व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के पन्द्रहवें शतक में नियतिवाद के निरूपक गोशालक का विस्तार से परिचय सम्प्राप्त होता है। उसी के आधार पर यहाँ विवेचन किया जा रहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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