________________
स्वभाववाद २११ iv. बीज आदि काँटों की तीक्ष्णता के प्रति कारण नहीं है अपितु देश
काल आदि भी कारण है। v. स्वभाववाद की सिद्धि में कारक हेतु की बजाय ज्ञापक हेतु मानना
उचित नहीं है। ज्ञापक हेतु भी स्वपक्ष की सिद्धि का उत्पादक होने से कारक हेतु के समान होता है। कारक हेतु साध्य का उत्पादक होता
है तो इससे स्वभाववाद की प्रतिज्ञा बाधित होती है। vi. पदार्थों के कारण की सत्ता उपलब्ध है। यह अनेक हेतुओं से सिद्ध है
तथा अनुपलब्ध भी हेतु की असिद्धि है। vii. 'निर्हेतुकाः भावाः' की प्रतिज्ञा में हेतु दिए जाने पर निर्हेतुक
स्वभाववाद वदतो व्याघात की भाँति खण्डित हो जाता है। ११. बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं
निरसन किया है। स्वभाववाद की मान्यता को उन्होंने 'सर्वहेतु निराशंसं' के रूप में प्रस्तुत किया है। ये स्वभाववादी संभवत: निर्हेतुक स्वभाववादी हैं जो स्व और पर दोनों को कारण नहीं मानते हैं। प्राकृतिक विचित्रताओं यथा कमल, केसर, मयूरचन्द्रक में कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी स्थिति में स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं हो सकता। दुःखादि आध्यात्मिक कार्यों की प्रत्यक्षत: निर्हेतुकता सिद्ध नहीं होती है किन्तु अनुमान से उसकी निर्हेतुकता सिद्ध है।
शान्तरक्षित और उनके टीकाकार कमलशील ने विभिन्न तर्क देकर स्वभाववाद का निरसन किया है। जिसका प्रभाव जैनाचार्य अभयदेवसूरि पर भी दृष्टिगोचर होता है।
हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में स्वभावहेतुवादी का ही खण्डन किया है जबकि तत्त्वसंग्रह अभयदेवकृत तत्त्वबोधविधायिनी टीका में स्वभावहेतुवादी और निर्हेतुकवादी दोनों मतों का खण्डन प्राप्त है। इससे पता चलता है कि स्वभावहेतुवादी पूर्व में स्वभाववाद के रूप में स्थापित था, धीरे-धीरे यह विकास को प्राप्त हुआ और निर्हेतुक स्वभाववाद के रूप में स्थापित होने लगा।
जैन ग्रन्थों में स्वभाव का विभिन्न दृष्टियों से निरूपण हुआ है तथा उसे जैन दार्शनिक कथंचित् कारण के रूप में स्वीकार भी करते हैं किन्तु उसकी कारणैकान्तता का प्रबल प्रतिषेध करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org