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________________ २१२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण संदर्भ १. बुद्धचरित, सर्ग-९, श्लोक ६२ कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।। -सन्मति तर्क ३.५३ की टीका, पृ. ७१२ कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च? स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रसंगः।। -शास्त्रवार्ता समुच्चय स्तबक २, श्लोक ६० की टीका ४. वेदमनीषी डॉ. फतहसिंहजी से २० मार्च २००३ को हुई चर्चा के आधार पर ५. ऋग्वेद, १०.१२९.१ ऋग्वेद, १०.१२९. २ का पूर्वार्ध ७. ऋग्वेद, १०.१२९.६ का उत्तरार्ध ८. दश वादों पर ओझा जी द्वारा रचित 'दशवाद रहस्यम्' पुस्तक द्रष्टव्य है। इन दश वादों में सिद्धान्तवाद को मिलाकर एकादशवाद तथा उनमें इतिवृत्तवाद को मिलाकर द्वादशवाद भी माने गए हैं। -द्रष्टव्य अपरवाद, पूर्वपीठिका, १३, १४ स्वभावमेतं परिणाममेके प्राहुर्यदृच्छां नियतिं तथैके। स्यात् पौरुषी प्रकृतिस्तदित्थं स्वभाववादस्य गतिश्चतुर्धा।। -अपरवाद, विषयावताररूप लोकायतवाद-अधिकरण, श्लोक ६, पृ. २ १०. अपरवाद, परिणामवादाधिकरण, श्लोक १ ११. कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभाव मृगपक्षिणां वा। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।। -अपरवाद, परिणामवादाधिकरण, श्लोक २। यही श्लोक बुद्धचरित के सर्ग ९.६२ में भी प्राप्त होता है। १२. अपरवाद, परिणामवादाधिकरण, श्लोक ३ १३. को वा अत्र हंसान् करोति शुक्लान् शुकाश्च को वा हरित:करोति। को वा मयूरान् प्रकरोति चित्रान् स्वभावतः सर्वमिदं प्रजायते।। -अपरवाद, परिणामवादाधिकरण, श्लोक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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