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२१० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
९.
टीकाकार हैं जो मलयगिरि सूरि से भिन्न ज्ञात होते हैं। उन्होंने तर्क दिया है स्वभाव कार्यगत हेतु है या कारणगत ? यह कार्यगत नहीं हो सकता क्योंकि कार्य के निष्पन्न होने के बाद ही उसकी संभावना हो सकती है। जो कार्य का हेतु नहीं हो सकता । कारणगत स्वभाव को कार्य का हेतु मानने पर अज्ञात टीकाकार ने अपनी सहमति प्रकट की है । स्वभाव कारण से अभिन्न है तथा सभी पदार्थ सकारण ही होते हैं।
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अभयदेवसूरि ने स्वभाववाद के दो रूप प्रस्तुत किये हैं- १. स्वभाव को ही कार्य की उत्पत्ति में हेतु मानने वाला स्वभावहेतुवाद। २. बिना किसी हेतु के कार्य की उत्पत्ति प्रतिपादित करने वाला निर्हेतुक स्वभाववाद | 'स्वभावतः एव भावा जायन्ते । कथन में स्वात्मनि क्रियाविरोध दोष आता है। दूसरा दोष यह है कि जो पदार्थ अनुत्पन्न है उनका उत्पन्न होने का स्वभाव नहीं माना जा सकता । उत्पन्न पदार्थ में भी उत्पन्न होने के स्वभाव की निवृत्ति माननी होगी जिससे स्वभाव की नित्य कारणता का खण्डन हो जाता है।
१०. अभयदेवसूरि ने 'सन्मतितर्क' पर तत्त्वबोधविधायिनी टीका ने निर्हेतुक स्वभाववाद का उपस्थापन करते हुए चार हेतु दिए हैं - १. 'अनुपलभ्य - मानसत्ताकं कारणम्- पदार्थों के कारण की सत्ता उपलब्ध नहीं होती इसलिए वे निर्हेतुक हैं । २. प्रत्यक्ष से काँटों की तीक्ष्णता आदि में कोई कारण ज्ञात नहीं होता इसलिए भी कार्य निर्हेतुक हैं । ३. कादाचित्क होने से दुःखादि आध्यात्मिक कार्य निर्हेतुक हैं । ४. कार्य-कारण सिद्धान्त ही दोषपूर्ण है, क्योंकि उसमें अन्वय- व्यतिरेक की व्याप्ति व्यभिचार युक्त है। उदाहरणार्थ स्पर्श और चक्षुर्विज्ञान के मध्य व्याप्ति संबंध होने के बावजूद भी चक्षुर्विज्ञान के प्रति कारण नहीं होता है।
अभयदेवसूरि ने इस निर्हेतुक स्वभाववाद पर युक्तियुक्त निरसन किया है
कण्टकादि की तीक्ष्णता निर्हेतुक नहीं है क्योंकि उसमें बीज आदि की कारणता सिद्ध है।
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कादाचित्क हेतु निर्हेतुक स्वभाववादियों के विरुद्ध है क्योंकि यह हेतु साध्य निर्हेतुक से विपरीत सहेतुक को सिद्ध करता है।
कार्य-कारण सिद्धान्त दोषपूर्ण नहीं है।
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