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स्वभाववाद २०९
हरिभद्रसूरि ने निर्हेतुक स्वभाववाद के खण्डन में कहा है कि सुख-दुःख की विचित्रता यदि निर्हेतुक है तो वह सदैव ही होनी चाहिए या सदैव ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि निर्हेतुक वस्तु अन्य की अपेक्षा नहीं रखती है। अतः सुख-दुःख सहेतुक हैं और हेतु के रूप में स्वकृत कर्म को छोड़कर किसी कारण की संभावना नहीं बनती।
हरिभद्रसूरि ने स्वभाव हेतुवाद का निरसन करते हुए कहा है कि स्वभाव जब क्रम से कार्य उत्पन्न करता है तब काल की भी अपेक्षा रखता है। काल की अपेक्षा रखने के कारण स्वभाववाद का सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो पाता- 'मुक्तः स्वभाववादः स्यात्कालवादपरिग्रहात्
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शास्त्रवार्ता समुच्चय के टीकाकार यशोविजय ने स्वभाववादियों के तर्क ही क्रमिक स्वभाव से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति होने में स्वभाव का भंग नहीं होता, का निरसन करते हुए कहा है कि प्रत्येक कार्य के प्रति भिन्नभिन्न स्वभाव को कारण मानने से घट आदि की एक जातीयता नहीं बन पाएगी। जबकि घट-पट आदि जैसे एक जाति के सहस्रों कार्य जगत् में देखे जाते हैं। स्वभाववादी यदि घटकूर्वदरूपत्वजाति मानकर इसका समाधान करते हैं तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि कुर्वदरूपत्व जाति प्रामाणिक नहीं है। यह जाति प्रामाणिक तभी हो सकती है जब एक ही कारण से कार्य की उत्पत्ति मानी जाए। दूसरी बात यह है कि घट कुर्वदरूपत्व से घट की उत्पत्ति मानने पर अन्यत्र भी उसी घट की उत्पत्ति की आपत्ति होती है। इस आपत्ति के परिहारार्थ यदि देश नियामक की कल्पना की जाय तो स्वभाव से भिन्न हेतु के सिद्ध हो जाने से स्वभाववाद का भंग हो जाता है। एक महत्त्वपूर्ण तर्क यशोविजय देते हैं कि स्वभाव ही यदि सब कार्यों का जनक होगा तो घट के प्रति दण्ड आदि कारणों के संग्रह में व्यक्ति प्रवृत्त नहीं हो सकेगा।
यशोविजय ने निर्हेतुक स्वभाववाद का भी निरसन किया है। वे कहते हैं कि निर्हेतुक स्वभाववाद तो उसे हेतु के रूप में मानने अथवा न मानने दोनों ही स्थितियों में अपने अस्तित्व को खो देता है।
अभिधान राजेन्द्र कोश में अज्ञात कृतिकार ने भी स्वभाववाद का निरसन किया है। ये कृतिकार संभवतः हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि के
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