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________________ २०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मल्लवादी क्षमाश्रमण ने द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद का निरसन करते हुए प्रश्न उठाया है कि यह स्वभाव व्यापक है या प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है। यदि व्यापक है तो एकरूप होने के कारण पररूप का अभाव होने से स्व या पर विशेषण निरर्थक है। यदि वह स्वभाव प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है तो घट के घटत्व स्वभाव, पट के पटत्व स्वभाव आदि से भिन्न स्वभाव की सिद्धि नहीं हो सकेगी। वस्तु मात्र में स्वभाव को स्वीकार करने पर इतरेतर अभाव के कारण स्वभाव की स्थिति कहाँ बनेगी? विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ग्यारह गणधरों के साथ भगवान महावीर का संवाद उपस्थित किया है, जिसे गणधरवाद के नाम से जाना जाता है। प्रथम गणधर गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं कि स्वभाव कोई वस्तु विशेष नहीं है, निष्कारणता या अकारणता को भी स्वभाव नहीं कहा जा सकता। वस्तु के धर्म को स्वभाव माना जाय तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि वस्तु का धर्म उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने से सदा एकरूप नहीं रहता। उसे वस्तु का धर्म मानने पर प्रश्न होता है कि वह आत्मा का धर्म है या अन्य पुद्गलादि वस्तुओं का। यदि वह आत्मा का धर्म बन जाएगा तो वह आकाशादि के समान अमूर्त होने के कारण शरीर का हेतु नहीं बन सकता। यदि उसे पुद्गल का धर्म मानें तो प्रकारान्तर से कर्म को ही स्वीकार करना होगा जो हमें (जैनों को) भी मान्य है। हरिभद्रसूरि ने धर्म-संग्रहणि ग्रन्थ में जगत् की विचित्रता एवं सुख-दुःख के अनुभव में एकमात्र स्वभाव को हेतु मानने वाले स्वभाववादियों का निरसन करते हुए स्वभाव के स्वरूप पर अनेक वैकल्पिक प्रश्न खड़े किये हैं- स्वभाव भाव रूप है या अभाव रूप? यदि वह भाव रूप है तो वह अनेक रूप है या एक रूप? यदि भाव रूप में एक रूप है तो वह नित्य है या अनित्य? यदि वह नित्य है तो भाव का हेतु नहीं बन सकता क्योंकि हेतु में परिवर्तन से ही कार्य होता है। स्वभाव एक रूप होकर अनित्य है तो यह भी उचित नहीं क्योंकि अनित्य कभी एक रूप नहीं होता। स्वभाव को अनेक रूप माना जाए तो प्रश्न उपस्थित होता है कि वह मूर्त है या अमूर्त? यदि वह मूर्त है तो वह जैन दर्शन में मान्य पौगलिक कर्म से भिन्न सिद्ध नहीं होता। यदि वह अमूर्त है तो आकाश की भाँति सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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