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स्वभाववाद २०५ चार्वाक दर्शन में जगत् की विचित्रता को स्वभाव से ही उत्पन्न माना जाता है। जैनागम सूत्रकृतांग की टीका में तज्जीव-तच्छरीरवादी के मत में स्वभाववाद की चर्चा की गई है, जो संभवत: चार्वाक दर्शन की ओर संकेत करती है।
जैन दर्शन के प्रश्नव्याकरण सूत्र एवं उसकी टीकाओं, स्थानांग सूत्र, नन्दीसूत्र की अवचूरि, हरिभद्रसूरि के लोकतत्त्व निर्णय एवं शास्त्रवार्ता समुच्चय, आचारांग एवं सूत्रकृतांग की शीलांकाचार्य विरचित टीकाओं आदि में स्वभाववाद का विशद निरूपण हुआ है।
कतिपय जैन दार्शनिकों ने स्वभाववाद का निरूपण करने के साथ युक्तियुक्त निरसन भी किया है। मल्लवादी क्षमाश्रमण विरचित द्वादशारनयचक्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण विरचित विशेषावश्यक भाष्य, हरिभद्रविरचित धर्मसंग्रहणि एवं शास्त्रवार्ता समुच्चय, अभयदेवसूरि रचित तत्त्वबोधविधायिनी टीका आदि इसके निदर्शन हैं।
जैनाचार्यों ने प्रामाणिकता के साथ स्वभाववाद के पूर्वपक्ष को उपस्थापित किया है तथा स्वभाववाद की विभिन्न विशेषताओं को अपने ग्रन्थों में समायोजित किया है। जैन ग्रन्थों में चर्चित स्वभाववाद से संबंद्ध कतिपय बिन्दु इस प्रकार हैं
प्रश्नव्याकरण सूत्र में 'सहावेण' शब्द का प्रयोग हुआ है, जो स्वभाववाद की
ओर संकेत करता है। अभयदेवसूरि ने इस शब्द की प्रश्नव्याकरण की टीका में विस्तार से विवेचना करते हुए स्वभाववाद का प्रतिपादन किया है। स्वभाववाद के अनुसार समस्त प्राणियों का व्यवहार पूर्वकृत कों से नहीं अपितु स्वभाव से संचालित होता है। वे प्राणी अपने स्वभाव से ही शुभ या अशुभ कार्य करते हैं। जगत् की विचित्रता भी स्वभाव जनित ही है। अभयदेवसूरि ने स्वभाववाद के संबंध में निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया है
कण्टकस्य प्रतिक्षणत्व, मयूरस्य विचित्रता।
वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि।।२९९ २. नन्दीसूत्र की अवचूरि में स्वभाववाद के संबंध में स्पष्ट किया गया है कि
जिसके होने पर होना तथा जिसके नहीं होने पर नहीं होना- यह अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान भी स्वभावकृत है। करोड़ों प्रयत्न करने पर भी स्वभाव को स्वीकृत किये बिना प्रतिनियत व्यवस्था नहीं है।
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