SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ३. लोकतत्त्व निर्णय में हरिभद्रसूरि का कथन है कि जगत् में जो सत् पदार्थ हैं, वे सभी स्वभावजन्य हैं। शास्त्रवार्ता समुच्चय में उन्होंने स्पष्ट किया है कि जीव के गर्भ से लेकर स्वर्गगमन तक के सभी कार्य स्वभाव से सम्पन्न होते हैं। स्वभाव के नियमन से ही कार्य का कभी होना तथा न होना रूप कादाचित्कत्व संभव होता है। घटादि कार्यों के कादाचित्कत्व के प्रति भी स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है। उपादान में निहित स्वभाव के कारण ही कार्य निश्चित आकार-प्रकार को प्राप्त करता है और अपनेअपने स्वभाव में अवस्थित होता है। कहा भी है- 'सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावे तथा तथा २०० ४. पदार्थों की उत्पत्ति के साथ उनका विनाश भी उनके स्वभाव से ही नियत देश-काल में होता है। इस संसार में मूंग, अश्व, माष आदि का पाक भी स्वभाव के बिना नहीं होता क्योंकि जिस वस्तु में पकने का स्वभाव नहीं है वह काल तथा अन्य कारणों के होने पर भी परिपक्व नहीं होती। स्वभाववाद पर यदि यह आपत्ति की जाय कि अन्य सभी सहकारी कारणों का सन्निधान प्राप्त होता है तब स्वभाव से कार्य की सिद्धि होती है। हरिभद्रसूरि ने स्वभाववादियों की ओर से समाधान करते हुए कहा है कि पूर्व-पूर्व उपादान परिणामों को उत्तरोत्तर होने वाले तत्-तत् उपादेय परिणामों के प्रति कारण मान लेने से स्वभाववाद में सहकारिचक्र की कल्पना अनावश्यक हो जाती है। स्वभाववाद के अनुसार बीज का जो चरम क्षणात्मक परिणाम होता है, उससे अंकुर का प्रथम क्षणात्मक परिणाम उत्पन्न होता है। द्वितीय, तृतीय क्षण परिणामों की उत्पत्ति चरम क्षणात्मक परिणाम से न होकर अंकुर के प्रथम क्षण से द्वितीय की और द्वितीय क्षण से तृतीय क्षण की उत्पत्ति होती है। उत्पादक बीज क्षणों में तथा उत्पाद्य अंकुर क्षणों में अत्यन्त सादृश्य होता है जिससे उनका वैसादृश्य तिरोहित रहता है। अतः सदृश अंकुर क्षणात्मक कार्य से सदृश बीज क्षणात्मक कार्य का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं होती। ७. आचारांग सूत्र की शीलांक टीका में क्रियावादियों के भेद करते हुए स्वभाववाद को उसमें स्थान दिया है। स्वभाव को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है- 'वस्तुनः स्वत एव तथा परिणतिभावः स्वभावः। २०१ अर्थात् वस्तु का स्वत: तथा परिणत रूप होना स्वभाव है। सभी भूत स्वभाव से ही प्रवृत्त और निवृत्त होते हैं। सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में शीलांकाचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy