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स्वभाववाद १९१ 'सभी भाव निर्हेतुक हैं' इस स्वपक्ष की सिद्धि में आपके द्वारा हेतु का ग्रहण किया जाता है अथवा नहीं। यदि हेतु का ग्रहण नहीं करते है तो आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता है और आपका मत अप्रामाणिक हो जाता है। हेतु के स्वीकार कर लेने पर आपकी प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है। हेतु के बिना केवल प्रतिज्ञा से आपका मत प्रतिपादित नहीं होता है। इस प्रकार स्वभाववादियों का मन्तव्य हेतु के देने तथा नहीं देने, इन दोनों स्थितियों में सिद्ध नहीं होता है।२३१
उपर्युक्त तर्क का उत्तर देते हुए स्वभाववादी कहते हैं कि हम स्वभाववाद की सिद्धि में जो हेतु देते हैं वह कारक हेतु नहीं, ज्ञापक हेतु है। ज्ञापक हेतु किसी का कारक नहीं होता है, इसलिए हमारी प्रतिज्ञा स्थापित हो जाती है
तथाहि ज्ञापको हेतुर्वचो वा तत्प्रकाशकम्।
सिद्धेनिमित्ततां गच्छन्साध्यज्ञापकमुच्यते।।२२२ हमारे द्वारा दिया गया हेतु स्वार्थानुमान काल में साध्य का ज्ञापक होता है तथा परार्थानुमानकाल में उस ज्ञापक हेतु का प्रकाशक वचन प्रमेयार्थ (साध्य) का निश्चय कराता है। इस प्रकार साध्य की सिद्धि में निमित्त बनता हुआ यह हेतु साध्य का ज्ञापक कहलाता है, कारक नहीं।
बौद्धाचार्य इस युक्ति को भी खण्डित करते हुए ज्ञापक हेतु की कारणता बतलाते हैं। ज्ञापक हेतु भी 'ज्ञान' के प्रति कारक होता है, क्योंकि वह ज्ञान का हेतु होता है। इससे स्वभाववादियों के स्ववचन में विरोध आता है। २३३३ जैन दर्शन में स्वभाव का स्वरूप एवं उसकी कारणता
जिस प्रकार जैन दर्शन में एकान्त कालवाद स्वीकृत न होते हुए भी 'काल' का विवेचन प्राप्त होता है, इसी प्रकार एकान्त 'स्वभाववाद' स्वीकृत न होते हुए भी स्वभावविषयक वर्णन सम्प्राप्त होता है । जैनदर्शन में पुद्गल, जीव एवं अन्य द्रव्यों का अपना स्वभाव स्वीकृत है। 'काल' का वर्णन तो विस्तार से प्राप्त होता है, क्योंकि 'काल' को तो जैनदर्शन में पृथक् एक द्रव्य माना गया है, किन्तु 'स्वभाव' कोई द्रव्य या पदार्थ नहीं है। इसलिए स्वभाव की चर्चा उतनी व्यापक नहीं मिलती है। यह अवश्य है कि प्रत्येक द्रव्य या पदार्थ का अपना स्वभाव होता है, उस स्वभाव को आधार बनाकर यत्र-तत्र फुटकर रूप में स्वभावविषयक निरूपण मिलता है, जिसे यहाँ एकत्र करने का प्रयास किया जा रहा है।
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