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________________ १९० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि स्वभाव व्यापक होता है। व्यापक के निवृत्त हो जाने पर व्याप्य निवृत्त हो जाता है अर्थात् कारण के निवृत्त होने पर कार्य भी निवृत्त हो जाता है। बौद्ध मत में तादात्म्य और तदुत्पत्ति द्वारा कारण व कार्य प्रतिबद्ध (व्याप्ति) स्वभाव वाले होते हैं। प्रमाण और अर्थ की सत्ता में अभेद नहीं होता है, क्योंकि उनमें भिन्नता का बोध होता है। प्रमाण अर्थ की उत्पत्ति का कारण नहीं होता। प्रमाण से उत्पत्ति मानने पर व्यभिचार आता है कि प्रमाण के बिना भी पदार्थ की सत्ता रहती है। देश, काल आदि की दृष्टि से विप्रकृष्ट पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं बनते तथापि उनकी सत्ता रहती है। प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय न बनने एवं पदार्थ की सत्ता होने में कोई विरोध नहीं है। जो जिसके बिना भी होता है वह उसका कारण नहीं होता है। इस प्रकार पदार्थ की सत्ता में कोई कारण नहीं होता है। यदि उसकी सत्ता में कारण स्वीकार किया जाता है तो 'सर्वहेतुनिराशंस' रूप आपकी प्रतिज्ञा का परित्याग हो जाता है। यदि पदार्थ को उत्पन्न होना स्वीकार किया जाता है तो पदार्थ की सत्ता में प्रमाण को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि विषयभूत अर्थ से प्रमाण तो उत्पन्न होता है, किन्तु प्रमाण से प्रमेय अर्थात् पदार्थ उत्पन्न नहीं होते हैं।२२८ । __स्वभाववादियों ने जो निर्हेतुकता कही है वह सर्वदृष्टि से है या स्वदृष्टि से? दोनों ही दृष्टियों से निर्हेतुकता खण्डित होती है सर्वादृष्टिश्च सन्दिग्धा स्वादृष्टिर्व्यभिचारिणी। विन्ध्यादिरन्धदूर्वादेरद्वष्टावपि सत्त्वतः ।।२२९ अर्थात् विन्ध्यादि पर्वत पर वर्तमान गुफा में घास आदि नहीं दिखने पर भी वे स्वरूप से विद्यमान होते हैं। अतः सभी को अदृष्ट होने से और स्वदृष्टि की व्यभिचारिता से पदार्थ की सत्ता में संदेह करना उचित नहीं है। ____ आप स्वभाववादी अनुपलब्ध हेतु से सभी पुरुषों के द्वारा होने वाली उपलब्धि (ज्ञान) की निवृत्ति मानते हैं या स्व-उपलब्धि की? मयूरचन्द्रकादि का कारण दृष्ट नहीं होने पर सभी अर्वाग्दर्शी कारण को अनुपलब्ध मान लेते हैं। उनका यह तर्क प्रामाणिक नहीं है। स्वदृष्टि से अदृष्ट होने पर वस्तु की सत्ता में व्यभिचार कैसे बताया जा सकता है? क्योंकि पर्वत की कन्दरा के भीतर होने वाली घास, किसलय, शिला-खण्ड आदि स्वयं द्वारा द्रष्टव्य नहीं होने पर भी सत्त्वतः होते हैं। इस प्रकार पदार्थ की सत्ता होती है, सन्देह के कारण उन्हें सत्तारहित नहीं कह सकते।२३० अत: मयूरचन्द्रकादि के कारण अद्रष्टव्य होने से नहीं हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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