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स्वभाववाद १८९ क्योंकि रूपादि की उपस्थिति दिखाकर स्पर्श के अभाव में चक्षुर्विज्ञान प्रदर्शित कर दिया जाए तब हमारी बात में व्यभिचार होगा, अन्यथा नहीं। परम्परागत कारण के रूप में स्पर्श की चक्षुर्विज्ञान के प्रति कारणता सिद्ध ही होती है। अत: कार्य-कारण सिद्धान्त में व्यभिचार नहीं है।२२०
कण्टकादि तैक्ष्ण्य में केवल बीज आदि ही कारण नहीं होते, किन्तु देश, काल आदि भी प्रतिनियत कारण हैं
नियतौ देशकालौ च भावानां भवतः कथम् ।
यदि तद्धेतुता नैषां स्युस्ते सर्वत्र सर्वदा ।।२२१ यदि राजीवादि के प्रति नियत देश काल हेतुता नहीं है तब प्रश्न उपस्थित होता है कि पर्वतादि स्थान को छोड़कर सलिल आदि नियत देश में और शिशिर आदि समय (काल) का परिहार कर ग्रीष्मकाल में ही कमल क्यों उत्पन्न होता है, अन्यत्र क्यों प्राप्त नहीं होता। देश काल से निरपेक्ष होने पर तो राजीवादि को सभी देश और काल में होना चाहिए। अन्य देश काल का परिहार कर नियम से प्रतिनियत देश काल में राजीवादि का होना इन कारणों की सापेक्षता का निश्चय करता है।२२२
___ अपेक्षा से कार्यता संभव होती है अर्थात् जिसकी उत्पत्ति में जिसका होना अनिवार्य हो वह उसका कारण होता है। अत: कहा है
तदपेक्षा तथावृत्तिरपेक्षा कार्यतोच्यते २२३ ___अन्य देशादि को छोड़कर नियत देशादि में होना ही अपेक्षा कहलाती है। 'तथा वृत्ति' अर्थात् कार्य को उत्पन्न करने के लक्षण वाली अपेक्षा से कार्य होता है। यह तथावृत्ति प्रत्यक्ष से सिद्ध होती है।२२४ स्वभाववाद प्रत्यक्ष प्रमाण से तथा प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ हेतु से बाधित होता है
तत्स्वाभाविकवादोऽयं प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते।
प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां हेतुरूपस्य निश्चयात्।।२२५ स्वभाववादी ने जो सुखादि की सिद्धि के लिए कादाचित्क को हेतु बताया है, वह साध्य विपरीत होने से विरुद्ध है। अहेतु होने से तथा दृष्टान्त की विकलता से कादाचित्कत्व उत्पन्न नहीं रहता।२२६
यदि स्वभाववाद की सिद्धि में अनुपलम्भमात्र को हेतु स्वीकार किया जाता है तो अनैकान्तिकता-दोष आता है। क्योंकि प्रमाणाभाव हेतु से अर्थ की सत्ता के अभाव का निश्चय नहीं हो सकता।२२७
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