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१८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण वह वह निर्हेतुक होता है। यथा- कण्टकादि का तैक्ष्ण्य, इसी प्रकार दुःखादि भी कादाचित्क है। यह स्वभाव हेतु से सिद्ध है।
स्वभाववादियों का कथन है कि 'जिसके होने पर जिसका होना पाया जाए तथा जिसके नहीं होने पर जिसका नहीं होना पाया जाए, वह कारण है' यह मन्तव्य समीचीन नहीं है क्योंकि इसमें व्यभिचार देखा जाता है। उदाहरण के लिए स्पर्श के होने पर चक्षु से ज्ञान होना तथा उसके अभाव में नहीं होना, ऐसी अन्वयव्यतिरेक व्याप्ति होने पर भी स्पर्श चक्षुर्विज्ञान में कारण नहीं होता है। अत: यह कारण का लक्षण नहीं है, व्यभिचार होने से। अत: पदार्थों की उत्पत्ति में कोई भी कारण मानना उचित नहीं है। स्वभाववादी इसीलिए पदार्थ की उत्पत्ति सर्वहेतुओं से रहित प्रतिपादित करते हैं।
खण्डन- कारण के होने पर ही कार्य होता है। इस तथ्य की सिद्धि बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में करते हुए कहा है कि सरोज, केसर आदि की विचित्रता का भी कारण है, वे बीज,पंक जल आदि की कारणता से उत्पन्न कार्य है, जो बीज आदि की अवस्था को छोड़कर सरोज केसर आदि की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ इन दोनों से सरोज केसरादि की कारणता सिद्ध है क्योंकि बीज, जल, पंक आदि के होने पर ही सरोज केसर आदि की उत्पत्ति देखी जाती है, इनके अभाव में नहीं।२१८
स्वभाववादियों ने जो कार्य-कारण भाव लक्षण में व्यभिचार बताया है, वह भी असिद्ध है। रूप हेतु वाले चक्षर्विज्ञान में स्पर्श भी निमित्ति कारण है, क्योंकि स्पर्श की रूप के प्रति हेतुता है। इसलिए चक्षुर्विज्ञान के प्रति स्पर्श का निमित्त भाव है। रूप और स्पर्श में साक्षात् और परम्परा का भेद है अर्थात् रूप चक्षुर्विज्ञान में साक्षत् कारण है जबकि स्पर्श परम्परागत कारण है।२१९
दूसरा तर्क यह भी है कि कार्य-कारण सम्बन्ध में सामान्य रूप से व्यतिरेक अवस्था को स्वीकार नहीं किया गया है अपितु विशेष अवस्था में स्वीकृत है। क्योंकि सभी समर्थ कारणों के उपलब्ध होने पर भी उनके मध्य एक कारण के अभाव से कार्य नहीं होता है तो वह उसका (कार्य का) कारण व्यवस्थापित होता है। यह वह विशेष अवस्था है जिसमें व्यतिरेक द्वारा कारणता निरूपित हुई है। इस विशेष परिस्थिति के कारण यदि व्यतिरेक व्याप्ति मात्र को ही स्वीकार कर लिया जाए तो यह भी व्याप्ति बन जाएगी- इस देश में माता के विवाह होने पर पिण्डखजूर होता है और उसके अभाव में नहीं होता । इस प्रकार की सदोष व्याप्ति भी तब व्यभिचार रहित मानी जाएगी। किन्तु स्पर्श से चक्षुर्विज्ञान के अनुमान में ऐसी सदोष व्याप्ति नहीं है,
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