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१८४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण में निमित्त बनता है, क्योंकि स्पर्श के बिना रूप की विशिष्ट अवस्था असंभव है। विशिष्ट अवस्था से तात्पर्य किसी भी पदार्थ में रूप, रस, गंध, स्पर्श भाव एक साथ रहते हैं। एक का अभाव होने पर तीनों का अभाव हो जाता है। पदार्थ में एक भाव का होना व अन्य भाव का न होना विशिष्ट अवस्था है। इस विशिष्ट अवस्था के असंभव होने से स्पर्श के साथ चक्षुर्विज्ञान की कारणता अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक सिद्ध हो जाती है।२०९ इस विशेष परिस्थिति या अपवाद की स्थिति के आधार पर कार्य-कारण भाव को असिद्ध नहीं मानना चाहिए।२०२
इसी प्रसंग में कहा गया है कि केवल व्यतिरेक व्याप्ति को सामान्य अवस्था में कार्य-कारण भाव के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है किन्तु विशेष अवस्था में स्वीकार किया जाता है। क्योंकि सभी समर्थ कारणों के उपलब्ध होने पर भी उनके मध्य एक कारण के अभाव से भी जब कार्य नहीं होता है तब वह उसका (कार्य का) कारण व्यवस्थापित होता है। इस विशेष परिस्थिति में व्यतिरेक व्याप्ति से कारणता मानी गई है, अन्यथा 'फारस देश में माता का विवाह होने पर पिण्डखजूर होता है और उसके अभाव में नहीं होता है' यह व्याप्ति भी अव्यभिचारी अर्थात् दोष रहित होने लगेगी। इसी प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति वाले स्पर्श से चक्षुर्विज्ञान होने में दोष नहीं होता, क्योंकि रूपादि की उपस्थिति दिखाकर स्पर्श के अभाव में चक्षुर्विज्ञान प्रदर्शित करना संभव नहीं है। अत: कार्यकारण सिद्धान्त दोषपूर्ण नहीं है।२०३ ।
(४) देश, काल आदि की कारणता- पर्वोक्त बीजादि ही काँटों की तीक्ष्णता के प्रति कारण नहीं हैं, अपित देशकालादि भी कारण हैं। यदि ऐसा न होता तो कण्टकादि की तीक्ष्णता उस नियत देश काल में उपलब्ध न होकर अन्य देश काल में भी उपलब्ध होती।२०४ देश, काल आदि कारण से निरपेक्ष होने पर यह संभावना बनती। किन्तु ऐसा जगत् में नहीं देखा जाता। अत: यह कहा जा सकता है कि सभी कार्य देश काल की अपेक्षा रखते हैं। प्रत्यक्षतः सिद्धि होने से कालादि की कार्यता की अवगति होती है।२०५
(५) ज्ञापक हेतु के निरसन से- यदि हेतु को कारक नहीं ज्ञापक मानते हैं तो यह भी उचित नहीं। क्योंकि कारक हेतु का प्रतिक्षेप करने वाले स्वभाववादी द्वारा ज्ञापक हेतु को स्वीकार करने पर भी स्वपक्ष में बाधा आती है। क्योंकि हेतु या ज्ञापक हेतु का प्रतिपादक वचन स्वपक्ष सिद्धि का उत्पादक होता है। उसके अभाव में उसकी ज्ञापक हेतुता नहीं बनेगी।२०६ स्वपक्षसिद्धि के बिना भी उसकी ज्ञापक हेतुता स्वीकार कर ली जाए तो सबके प्रति ज्ञापकता सिद्ध हो जायेगी। इस प्रकार ज्ञापक हेतु भी स्वपक्षसिद्धि का उत्पादक होने से कारक हेतु के समान हो जायेगा। दोनों में कोई
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