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स्वभाववाद १८३
अनुत्पन्न - उत्पन्न पदार्थों में स्वभाव की कारणता न बनने से स्वभावहेतुवादी द्वारा मान्य स्वभाव का स्वरूप विघटन को प्राप्त होता है । स्वभावानुपलब्धि हेतु से कारण सत्ता की अनुपलब्धि, प्रत्यक्ष से कारणता की असिद्धि, कादाचित्क हेतु से दुःखादि आध्यात्मिक कार्यों की निर्हेतुकता के प्रमाणों से स्वभाव को निर्हेतुक माना है। मूल सिद्धांत अर्थात् कार्य-कारण सिद्धांत को ही दोषपूर्ण बताकर स्वभाववादियों ने 'निर्हेतुक स्वभाववाद' को स्थापित किया है।
अभयदेवसूरि द्वारा निर्हेतुक स्वभाववाद का निरसन
जैन दर्शन के महान् नैयायिक अभयदेवसूरि 'तर्क पञ्चानन' विरुद से विश्रुत रहे हैं। इन्होंने अनेकान्तवाद के प्रतिष्ठापक आचार्य सिद्धसेन सूरि द्वारा रचित 'सन्मतितर्क प्रकरण' पर 'तत्त्वबोधविधायनी' नामक विशाल टीका का निर्माण किया. है। अभयदेवसूरि कृत टीका में 'स्वभाववाद' का जो खण्डन किया गया है, उसे यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है
(१) कण्टकादि की तीक्ष्णता निर्हेतुक नहीं- 'असदेतत्', कण्टकादितैक्ष्ण्यादेरपि निर्हेतुकत्वासिद्धेः ' कण्टकादि की तीक्ष्णता की निर्हेतुकता सिद्ध न होने से आपका वचन असत् है, क्योंकि प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ रूप अन्वयव्यतिरेक से बीज आदि की कारणता निश्चित होती हैं। १९८ जिसके होने पर जिसका होना तथा जिसके विकृत होने पर जिसका विकृत होना पाया जाए, वह उसका कारण. कहलाता है। फूली हुई विशिष्ट अवस्था अंकुरण को प्राप्त बीज कण्टकादि तीक्ष्णता में कारण है, क्योंकि इनमें अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध है। प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से बीजादि के होने पर कण्टकोत्पत्ति दृष्टिगत होती है, इसके अभाव में नहीं । अतः बीजादि कारण की उपलब्धि से 'अनुपलभ्यमानसत्ताकं च कारणम्' हेतु असिद्ध होता है।
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(२) कादाचित्क हेतु असिद्ध- 'कादाचित्कत्वात् इति साधनम् तदपि विरुद्धम्, साध्यविपर्ययसाधनाद्' अर्थात् आपने कादाचित्क हेतु दिया है, वह भी आपके सिद्धान्त के विरुद्ध है। क्योंकि यह हेतु साध्य 'निर्हेतुक' से विपरीत 'सहेतुक' में जाता है इसलिए अहेतु का कादाचित्क होना अनुपपन्न है। आपके द्वारा प्रदत्त कण्टकतीक्ष्णता और दुःखसुखादि दृष्टान्त अहेतुकता के अभाव से आपके साध्य को सिद्ध नहीं करते हैं अर्थात् ये दृष्टान्त साध्यविकल हैं। " यह साध्य विकलता आपके मत को विकृत करती है।
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(३) कार्य-कारण सिद्धान्त दोषपूर्ण नहीं- आपके द्वारा कार्यकारण सिद्धान्त व्यभिचारी बताया गया है, वह असिद्ध है। रूप के साथ स्पर्श भी चक्षुर्विज्ञान
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