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________________ स्वभाववाद १८१ भावाः) का खण्डन किया है। अभयदेवसूरि ने निर्हेतुक स्वभाववादियों के द्वारा स्वभावकारणतावादियों का खण्डन प्रस्तुत किया है। तदनन्तर निर्हेतुक स्वरूप वाले स्वभाववाद के पक्ष को उपस्थापित कर उसका भी खण्डन किया है। इसे यहाँ क्रमशः संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है - स्वभाव कारण नहीं : निर्हेतुक स्वभाववादी अन्य मतावलम्बी जो 'स्वभावत एव भावा जायन्ते १८९ कथन द्वारा पदार्थों की उत्पत्ति स्वभाव से बतलाते हैं, उनका मत दोषपूर्ण है १. २. कारण कि इसमें 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोष आता है। अपने में (पदार्थ में) क्रिया का सम्भव नहीं हो पाना ही 'स्वात्मनिक्रियाविरोध' कहलाता है। यथा अग्नि द्वारा स्वयं को जलाना, पानी द्वारा स्वयं को भिगोना आदि । १० चूंकि लोक में देखा जाता है कि अग्नि कभी स्वयं को नहीं जलाती अपितु पर - पदार्थ को जलाती है और पानी दूसरों को भिगोता है, स्वयं को नहीं । अतः स्वभाव से पदार्थ का उत्पन्न होना बाधित होता है। - अनुत्पन्न पदार्थ की स्थिति में जो पदार्थ अनुत्पन्न है, उनका उत्पन्न होने का स्वभाव नहीं माना जा सकता । उत्पन्न पदार्थ की स्थिति में- जो पदार्थ उत्पन्न हैं उनमें वर्तमान काल में स्वभाव की उपस्थिति होने पर भी उत्पत्ति के पूर्व स्वभाव का अभाव होता है। यह पूर्वकालिक स्वभाव का अभाव पदार्थ के उत्पन्न होने के स्वभाव की निवृत्ति कर देता है । १९१ निर्हेतुक स्वभाववाद का उपस्थापन निर्हेतुक स्वभाववादियों के अनुसार बिना किसी कारण के कार्य उत्पन्न होता है। अभयदेवसूरि ने निर्हेतुक स्वभाववाद का उपस्थापन सुन्दर रीति से व्यवस्थित रूप में किया है, जो यहाँ प्रस्तुत है । १. अनुपलभ्यमानसत्ताकं कारणम्- स्वभाववादियों का यह मत कारण के बिना ही कार्योत्पत्ति को स्वीकार करता है। कारण के बिना कार्योत्पत्ति से तात्पर्य स्व और पर कारणों से निरपेक्ष १९२ पदार्थों का जन्म होना है, जिसे स्वभाववादियों द्वारा 'सर्वहेतुनिराशंसस्वभावा भावा:- कहा गया है। १९३ इस प्रसंग में स्वभाववादी युक्ति देते हैं - 'यद् अनुपलभ्यमानसत्ताकं तत् प्रेक्षावतामसद्वयवहारविषयः यथा शशशृङ्गम्, अनुपलभ्यमानसत्ताकं च भावानां कारणमिति स्वभावानुपलब्धिः अर्थात् जो अनुपलब्ध सत्ता वाला (अनुपलभ्यमानसत्ताकं ) है Jain Education International १९४ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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