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________________ १८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जिससे होता है वह उसका हेतु होता है। इसके विपरीत यहाँ कार्य की निष्पन्नता से हेतु रूप स्वभाव को आत्मलाभ प्राप्त होता है। कार्य की निष्पन्नता से पूर्व स्वभाव के अभाव का प्रसंग होने से, यह किस प्रकार कार्यगत हेतु बन सकता है। १८६ कारणगत स्वभाव कार्य का हेतु है, इस बात से हम जैन भी सहमत हैं। कारणों में विभिन्नता होने से स्वभाव भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं और अपने कारण के प्रति नियत होते हैं। यथा-मिट्टी से कुम्भ होता है पटादि नहीं, क्योंकि मिट्टी में पटादिकरण के स्वभाव का अभाव है। तन्तु से भी पट ही उत्पन्न होता है घट आदि नहीं, क्योंकि तन्तुओं में घटकरण आदि के स्वभाव का अभाव है। अतः कहा गया है- 'मिट्टी से कुम्भ होता है, पटादि नहीं, यह सभी कारणगत स्वभाव स्वीकार करने पर होता हैं। १८७ इसी प्रकार अन्य कार्य भी स्वभाव से होते हैं। यह स्वभाव को कारणगत अंगीकार करने से ही संभव हो पाता है। जैसे- कडुक मूंग स्वकारण अर्थात् स्वभाव से उस रूप होते हैं कि स्थाली, ईन्धन, काल आदि सामग्री का सम्पर्क होने पर भी पाक को प्राप्त नहीं होते। स्वभाव कारण से अभिन्न है, अतः सभी पदार्थ सकारण ही हैं। ' १८८ और कहा गया है 'कारणगओ उ हेऊ केण व निट्ठोति निययकज्जस्स? न यसो तओ विभिन्नो, सकारण सव्वमेव तओ ।। ' अर्थात् हेतु (स्वभाव) कारणगत रहता है। उसे अपने कार्य में किसके द्वारा स्थापित किया गया? अर्थात् किसी के भी द्वारा नहीं। वह स्वभाव कार्य से भी भिन्न नहीं है क्योंकि सभी पदार्थ कारण से ही उत्पन्न हैं। अभयदेवसूरिकृत ( १०वीं शती) 'तत्त्वबोधविधायनी' टीका में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं खण्डन स्वभाववाद के सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएँ प्राप्त होती हैं। एक मान्यता के अनुसार स्वभाव को पदार्थ की उत्पत्ति में कारण माना जाता है। इस मान्यता का उल्लेख अभयदेवसूरि ने 'स्वभावत एव भावा जायन्ते' (स्वभाव से ही पदार्थ उत्पन्न होते हैं) एवं 'स्वभावकारणा भावाः' (पदार्थों की उत्पत्ति में स्वभाव कारण होता है) वाक्यों द्वारा किया है। दूसरी मान्यता के अनुसार स्वभाववाद में प्रत्येक पदार्थ को निर्हेतुक माना जाता है। इसका उल्लेख अभयदेवसूरि ने 'सर्वहेतुनिराशंसस्वभावा भावा: ' शब्दों से किया है। स्वभाववाद के इस द्वितीय स्वरूप को स्वीकार करने वाले स्वभाववादियों ने प्रथम स्वरूप (स्वभावकारणाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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