SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाववाद १७९ निर्दोषता नहीं आती, क्योंकि पूर्वक्षण और उत्तरक्षण काल-नियमन के अभाव में क्रमहीनता को प्राप्त होते हैं। यदि काल का नियमन स्वीकार कर लिया जाए तो कहते हैं- 'मुक्तः स्वभाववादः स्यात्कालवादपरिग्रहात्' अर्थात् अन्य कालवाद कारण की सापेक्षता के निमित्त से स्वभाववाद अप्रमाणित हो जाता है। अनेक जातियों वाले कार्यों का नियामक स्वभावमात्र होने पर सभी कार्यों में एक जाति का अथवा सब कार्यों में सभी जातियों का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए टीकाकार यशोविजय ने कहा- 'एकजातीयहेतुं विना कार्येकजात्याऽसंभवात्' एकजातीय कारण की सिद्धि न होने से कार्य में एकजातीयता संभव नहीं होती। जिससे विभिन्न काल में बने हुए अनेक घटों में घटत्व रूप एक जाति असंभव हो जाती है। इसके समाधान हेतु स्वभाववादी 'घटकुर्वद्रूपत्व' नाम की एक अन्य जाति स्वीकार करते हैं, किन्तु वह भी अप्रामाणिक होने से और प्रत्यभिज्ञा द्वारा बाधित होने से असिद्ध है। इसके अतिरिक्त देशनियामक हेतु की कल्पना और दण्डादि के संग्रह में अप्रवृत्ति जैसे दोष भी कुर्वद्रूपत्व जाति को निराधार बताते हैं । उपर्युक्त सभी युक्तियाँ सहेतुक स्वभाववाद को दूषित करती है। 4 निर्हेतुक स्वभाववाद तो हेतु के मानने और न मानने दोनों ही स्थितियों में अपने अस्तित्व को खो देता है। ज्ञापक हेतु के द्वारा अपने आपको स्थापित करने का उसका प्रयास भी निष्फल हो जाता है। कारण कि ज्ञापक हेतु भी ज्ञान का जनक होने से कारक हेतु ही सिद्ध होता है। अतः स्वभाववाद के ये दोनों मत असत् है । अज्ञात कृतिकार द्वारा निरूपण एवं निरसन अभिधान राजेन्द्र कोश में स्वभाववाद विषयक चर्चा समुपलब्ध है, किन्तु वह किस कृति से उद्धृत है, इसका कोई संकेत नहीं दिया गया है। इसमें स्वभाव मात्र की कारणता को अनुचित बताते हुए उसका खण्डन किया गया है। स्वभाववादी कहते है- 'इह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते' अर्थात् सभी भाव स्वभाव से उत्पन्न होते हैं । खण्डन- स्वभाव भाव रूप होता है या अभाव रूप? यदि भाव रूप है तो एक रूप है या अनेक रूप। ये सभी अवस्थाएँ एक दूषण - जाल को उत्पन्न करती हैं । १८ जो स्व का भाव है या वस्तु का अपना भाव है, वह स्वभाव है। यह स्वभाव कार्यगत हेतु है या कारणगत हेतु ? यह कार्यगत नहीं हो सकता क्योंकि कार्य के निष्पन्न होने के बाद ही कार्यगत स्वभाव होगा और अनिष्पन्न होने पर नहीं । निष्पन्न होने के बाद 'स्वभाव' कार्य का हेतु कैसे हो सकता है? क्योंकि वस्तु या कार्य का स्वरूप लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy