________________
१७८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण iv. यदि स्वभाव ही सब कार्यों का जनक होगा तो घट के प्रति दण्ड आदि की
कारणता यथार्थज्ञान से युक्त व्यक्ति दण्डादि के संग्रह में प्रवृत्त नहीं हो सकेगा।८१ क्योंकि दण्ड आदि से घट आदि के होने की निश्चितता के
अभाव में निष्कम्प प्रवृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। ३. यशोविजय द्वारा निर्हेतुक स्वभाववाद का निरसन
हरिभद्र सूरि ने 'निर्हेतुक स्वभाववाद' की चर्चा नहीं की है, किन्तु उनके टीकाकार यशोविजय ने निर्हेतुकस्वभाववाद का संक्षेप में स्वरूप प्रस्तुत कर खण्डन किया है। निर्हेतुक स्वभाववाद के अनुसार समस्त पदार्थ निर्हेतुक होते हैं- 'निर्हेतुका भावाः।' इस मान्यता के अनुसार किसी भी कारण को स्वीकार न करना स्वभाववाद है। इसके खण्डन में यशोविजय तर्क देते हैं
समस्त भाव निर्हेतुक हैं, यह स्वीकार करने पर भी स्वभाववाद का साम्राज्य नहीं टिक पाता है, क्योंकि उसकी पुष्टि में हेतु देने पर 'वदतो व्याघातः 'दोष आता है।८२ जैसा कि कहा है
न हेतुरस्तीति वदन् सहेतुकं, ननु प्रतिज्ञां स्वयमेव बाधते । अथापि हेतुप्रलयादसौ भवेत्, प्रतिज्ञया केवलयाऽस्य किं भवेत्? ८३
निर्हेतुक भाव को हेतु के साथ प्रस्तुत करने पर वादी स्वयं ही प्रतिज्ञा का भंग कर देता है और हेतुहीन प्रतिज्ञा को प्रस्तुत करने पर प्रतिज्ञा निरर्थक हो जाती है।
यदि स्वभाववादी हेतु में कारकता न मानकर ज्ञापकता को अंगीकार करते हुए कहते हैं कि हेतु को ज्ञापक मानने से न तो प्रतिज्ञा का भंग होता है और न प्रतिज्ञा की निरर्थकता का प्रसंग आता है।८४ तो उनका यह समाधान उचित नहीं है, कारण कि ज्ञापक हेतु भी ज्ञान का जनक होने से कारक हेतु ही सिद्ध होता है। दूसरी बात यह भी है कि ज्ञापकहेतुता को किसी विशेष देशकाल में स्वीकार नहीं किया जाएगा तो स्वभाववादियों को मान्य 'कादाचित्कत्व में व्याघात होगा और यदि नियत देशकालादि को स्वीकार करते हैं तो वह कारक हेतु सिद्ध होगा, क्योंकि नियतावधि (नियत देशकाल में रहने वाला) ही कारक होता है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो 'गर्दभ से धूम' की उत्पत्ति मानने का प्रसंग आ जाएगा।
इस प्रकार स्वभावहेतुवाद और निर्हेतुक स्वभाववाद विभिन्न युक्तियों से बाधित होते हैं। वैचित्र्य की अनुपपत्ति और जगत् की युगपद् उत्पत्ति दोष प्रत्यक्षतः स्वभाव की कारणता को खण्डित करते हैं। स्वभाव द्वारा क्रमिक उत्पत्ति मानने पर भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org