SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाववाद १७७ २. टीकाकार यशोविजय द्वारा खण्डन में प्रस्तुत तर्क हरिभद्रसूरि विरचित शास्त्रवार्तासमुच्चय के टीकाकार यशोविजय (१७वीं शती) ने स्वभावहेतुवाद के खण्डन में कुछ नये तर्क भी प्रस्तुत किए हैं । उन्होंने स्वभाववादियों की ओर से तर्क उपस्थापित कर उनका विधिवत् खण्डन किया है, यथाi. काल को कारण मानने के दोष का निवारण करने के लिए यदि स्वभाववादी कहें कि 'स्वभाव क्षणिक होता है, क्षणिक होने से स्वभाव का क्रमिकत्व अनिवार्य है। अतः क्रमिक स्वभाव से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति मानने पर स्वभाव से भिन्न कारण की सिद्धि न होने से स्वभाववाद का भंग नहीं हो सकता, तो स्वभाववादियों की यह युक्ति भी उचित नहीं है। 'परं न युक्तम् एकजातीयहेतुं विना काईंकजात्याऽसंभवात् १७८ क्योंकि युक्तिहीन होने से आप (स्वभाववादियों) का कथन वचनमात्र है, कारण कि आपने प्रत्येक कार्य के प्रति भिन्न-भिन्न स्वभाव को कारण माना है, जैसे दस घट के प्रति दस प्रकार के स्वभाव कारण हैं। इस स्थिति में एकजातीय कारण की सिद्धि न होने से कार्य में एकजातीयता नहीं बन पाएगी। जबकि घट-पट आदि जैसे एक जाति के सहस्रों कार्य जगत् में देखे जाते हैं। ii. अपने मत को स्थापित करने हेतु स्वभाववादी पुनः समाधान करते हैं कि घटोत्पादक समस्त स्वभावों में 'घटकुर्वद्रूपत्व' नाम की एक जाति मान ली जाए तो उस जातिगत स्वभाव से होने वाले घटों में एकजातीयता की उपपत्ति हो जाएगी। किन्तु यह समाधान भी उचित नहीं है, क्योंकि कुर्वद्पत्व जाति प्रामाणिक नहीं है। यह जाति प्रामाणिक तब हो सकती है जब एक ही कारण से कार्य की उत्पत्ति मानी जाए, किन्तु एक ही कारण से कार्य का होना असिद्ध है। कार्य की उत्पत्ति तो कारण समूहात्मक सामग्री से ही होती है। सामग्री-कारणसमूह मानने पर गौरव अवश्य है, किन्तु प्रमाणानुमत होने से वह गौरव सह्य है। प्रमाण शून्य होने से 'कुर्वद्रूपत्व को स्वीकार किया जाना कठिन है। इसके अतिरिक्त एक दोष यह भी है कि कुर्वद्रूपत्व भावपदार्थ के क्षणिकत्व पर निर्भर करता है और क्षणिकत्व पूर्वोत्तर घटादि में ‘स एवायं घटः' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा से बाधित है। iii. एक स्थान पर 'घटकुर्वद्रूपत्व' से घट की उत्पत्ति होने पर अन्यत्र भी उसी घट की उत्पत्ति की आपत्ति होती है। इस आपत्ति के परिहारार्थ यदि देशनियामक हेतु की कल्पना की जाए तो स्वभाव से भिन्न हेतु के सिद्ध हो जाने से स्वभाववाद का भंग हो जाता है।१८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy