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१७६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ii. इस तरह एकरूप स्वभाव मानने से वैचित्र्य अनुपपत्ति दोष तो आता ही है साथ में समूचे जगत् की उत्पत्ति युगपद् होने की आपत्ति भी आती है
ततस्तस्याविशिष्टत्वाद् युगपद्विश्वसंभवः । न चासाविति सद्युक्त्या तद्वादोपि न संगतः ।।७१
अर्थात् स्वभाव के अविशिष्ट होने के कारण उसे किसी अन्य कारण की अपेक्षा न होने से, एक कार्य की उत्पत्ति के समय ही उसे सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करना चाहिए, किन्तु प्रत्यक्षत: ऐसा दृग्गोचर नहीं होता।
अतः इस अबाधित तर्क से स्वभाववाद असंगत सिद्ध होता है। iii. इस तर्क के उत्तर में स्वभाववादी युक्ति प्रस्तुत करते हैं कि 'ननु
स्वभावस्य क्रमवत्कार्यजनकत्वमपि स्वभावादेवेति नानुपपत्तिरिति चेत् १७२ स्वभाव का केवल कार्यजनकत्व ही स्वभाव नहीं है, अपितु क्रमवत्कार्यजनकत्व स्वभाव है। इस स्वभाव के अनुसार 'स्वभाव' क्रम से ही कार्य को उत्पन्न करेगा,जिससे एक साथ जगदुत्पत्ति की संभावना नहीं होगी। किन्तु उनकी यह युक्ति भी उचित नहीं है, क्योंकि स्वभाव अपने जिस स्वभाव से क्रमयुक्त कार्य को उत्पन्न करेगा, उसी स्वभाव से वह पूर्व
और उत्तर काल को भी उत्पन्न करेगा। किन्तु पूर्वक्षण का पहले उत्तरक्षण का बाद में उत्पन्न होना काल द्वारा नियन्त्रित होता है, उसके नियमन के अभाव में पूर्वकाल बाद में और उत्तरकाल पहले भी हो सकता है। इस
प्रकार काल की क्रमहीनता से स्वभाववादियों की युक्ति बाधित होती है।१७३ iv. वैचित्र्य की अनुपपन्नता, विश्व की युगपत् उत्पत्ति, काल की क्रमहीनता के
अतिरिक्त एक दोष यह भी है कि जब स्वभाव ही सभी जातियों का नियामक है तो भिन्न-भिन्न कार्यों में भिन्न-भिन्न जाति न रहकर सब कार्यों में सभी जातियों का समावेश हो जाना चाहिए या सभी कार्यों की एक ही जाति हो जानी चाहिए।७४ स्वभाववादी पुनः युक्ति देते हैं-'तत्तत्कालादिसापेक्षो विश्वहेतुः १७५ अर्थात् स्वभाव तत्तत्क्षणात्मक काल के योग से तत्तत् कार्य का कारण होता है। अतः तत्तत् क्षण के क्रमिक होने से वह क्रम से ही कार्य को उत्पन्न करता है। परन्तु यह तर्क भी स्वभाववाद को जीवित रखने में समर्थ नहीं है। क्योंकि इसमें स्वभाव के अतिरिक्त कारण 'काल' भी सम्मिलित है। स्वभाव मात्र की कारणता प्रतिपादित न होने से स्वभाववाद सिद्धान्त सत्ताहीन हो जाता है- 'मुक्तः स्वभाववादः स्यात्कालवादपरिग्रहात्।
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