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स्वभाववाद १६९ वस्तुओं के फल-स्वभाव के अनुरूप ही जीवों की प्रवृत्ति देखी जाती है और उससे व्यवस्था भी बनी रहती है- 'फलस्वभावानुरूपाः प्रवृत्तयोघ्त एवं व्यवस्थिता मृत्पिण्ड और दण्ड आदि से घट उत्पन्न होता है इस बात को जानकर ही कुलाल चाक पर मृत्पिण्ड रखकर चाक को घुमाने आदि का व्यापार करता है।
इस प्रकार एक ही स्वभाव स्वशक्तिभेद से कारकभेद को प्राप्त होता है। वही कर्ता, कर्म, करण आदि स्वरूपों को प्राप्त होता है। वह ही अनुभव करता है तथा वह ही अनुभव किया जाता है। आत्मा ही कर्म स्वभाव वाले द्रव्यों से संयुक्त होता है तथा वियुक्त होता है इस प्रकार स्वभाव से ही बन्ध और मोक्ष हुआ करता है।१४२ उदाहरणार्थ जिस प्रकार धातुवाद के बिना भी कनक का आविर्भाव होता है उसी प्रकार कर्म से पृथक् होने के स्वभाव के कारण भव्य जीवों में निर्मल आत्मा का आविर्भाव होता है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान पूर्वक की गई क्रिया की प्रबलता से कैवल्य की प्राप्ति उसी प्रकार होती है जिस प्रकार धातुवाद क्रिया से शुद्ध स्वर्ण की उत्पत्ति होती है। किन्हीं जीवों में कर्मों से पृथक् न होने के स्वभाव के कारण कैवल्य प्रकट नहीं होता है। अभव्य जीवों की मुक्ति न होना और भव्य जीवों की मुक्ति होना स्वभाव के ही कारण होता है। स्वभावनय के कारण ही जीव दो प्रकार के कहे गए हैंभवसिद्धिक और अभवसिद्धिक। भवसिद्धिक जीवों में ही विशुद्धि द्वारा कर्मसंतति का व्यवच्छेद होता है। अनादि काल से जीव और कर्म परस्पर संयुक्त हैं। इनका व्यवच्छेद और अव्यवच्छेद स्वभाव से ही होता है। भव्य जीवों के कर्मसंतान की सांतता और अभव्य जीवों के कर्मसंतान की अनन्तता में स्वभाव से अन्य कोई हेतु नहीं कहा जा सकता। यदि इसमें किसी हेतु का अन्वेषण किया जाए तो भव्य जीवों के कर्म संतान के अनादि होने से अनादि आकाश की भाँति अनन्तता भी माननी होगी। यदि कर्मसंतान के अनादि होने पर भी उसे अंतयुक्त माना जाए तो आकाश भी भव्य जीवों के कर्म की भाँति अनादि होने से सांत माना जाना चाहिए। यदि कर्म के अनादि होने पर भी बिना हेतु के ही उनका अंत होता है तो सिद्धों के कर्मसंतान की भी बिना हेतु के आदि क्यों नहीं होती है। इस प्रकार स्वभाव ही शरणभूत है। भव्य, अभव्य, संसार उच्छित्ति-अनुच्छित्ति आदि में स्वभाव के अतिरिक्त और कोई कारण
नहीं है।१४५
स्वभाव को स्वीकार नहीं करने पर न तो कोई साधन साधन बन सकता है और न कोई दूषण दूषण हो सकता है और इसके अभाव में वाद (शास्त्रार्थ) ही प्रवृत्त नहीं हो सकता है।०६ पक्ष, हेतु, दृष्टान्त आदि अपने स्वभाव से सम्पन्न होकर ही साधन बनते हैं। उसके विपर्यय में वे आभास (दूषण) कहलाते हैं। इसलिए स्वभाव ही प्रभु और विभु रूप से जगत् का कारण है।१४७
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