SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण खण्डन यह स्वभाव व्यापक है या प्रत्येक वस्त में परिसमाप्त होता है? यदि व्यापक है तो एकरूप होने के कारण पररूप का अभाव होने से स्व या पर विशेषण निरर्थक है। यदि वह स्वभाव प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है अर्थात् प्रत्येक वस्तु में भिन्नभिन्न है तो लोक में प्रचलित घट के घटत्व स्वभाव, पट के पटत्व स्वभाव आदि से भिन्न यह स्वभाव नहीं हो सकेगा। इस तरह स्वभाववादियों के द्वारा वर्णित स्वभाव की सिद्धि नहीं होती है। यही नहीं स्वभाव के अभाव की भी प्रसक्ति होती है । क्योंकि वस्तु मात्र में स्वभाव को स्वीकार करने पर घट ही घट है, पट ही पट है, पट में घट नहीं है और घट में पट नहीं है- इस प्रकार इतरेतर अभाव के कारण परस्पर एक दूसरे का अस्वभावन (स्वभाव न होना) ही परिगृहीत होता है। इस प्रकार कैसे और कहाँ पर यह स्वभाव रहता है?१४८ इस प्रकार मल्लवादी क्षमाश्रमण ने द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद का विस्तार से व्यवस्थित उपस्थापन किया है तथा उसका सबल तों से मूलोत्पाटन भी कर दिया है। जिनभदगणि (६-७वी शती) द्वारा विशेषावश्यक भाष्य में स्वभाववाद का निरूपण एवं निरसन विशेषावश्यकभाष्य में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं अपाकरण सम्प्राप्त होता है। यह निराकरण एक स्थान पर नहीं दो तीन स्थलों पर मिलता है, किन्तु भेद न होने से यहाँ एक ही स्थल का विवेचन किया जा रहा है। स्वभाववाद- "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादि वेदवचनश्रवणात् स्वभावं देहादीनां कर्तारं मन्यसे, यतः केचिदाहु: "सर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते। स्वभाववादिभिस्ते हि नाहुः स्वमपि कारणम्"।। राजीव कण्टकादीनां वेचित्र्यं कः करोति हि ? मयूरचन्द्रिकादिर्वा विचित्रः केन निर्मितः।। कादाचित्कं यदत्रास्ति नि:शेषं तदहेतुकम्। यथा कण्टकतैक्ष्ण्यादि तथा चैते सुखादयः।।५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy