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________________ १६८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति को वा करोति विनयं कुलजेषु पुंसु।।३४ काँटों में तीक्ष्णता, मृगों और पक्षियों में विचित्रता स्वभावतः होती है, इसमें कोई इच्छा या प्रयत्न कारगर नहीं होता। मृगियों के नयनों में कोई काजल नहीं लगाता तब भी उनके नयन सुन्दर होते हैं। मयूर के पंख स्वभावत: सुन्दर होते हैं, कमल के फूल की पंखुड़ियाँ भी स्वभाव से सुन्दर होती हैं और सत्कुल में उत्पन्न पुरुषों में स्वभाव से विनय देखा जाता है। यदि स्वभाव ही कारण है तो भूमि आदि द्रव्यों के बिना स्वभावमात्र से ही कण्टकादि की उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती? अन्यथा भी उसकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती? कण्टक क्यों बींधता है, क्यों वह कदाचित् ही बींधता है? किसलिए कुछ को ही बीधंता है कुछ को नहीं?९३५ तब स्वभाववादी कहते हैं भूमि, अम्बु आदि द्रव्यों की अपेक्षा रखकर कण्टकादि की उत्पत्ति होती है, यह भी स्वभाव ही है, क्योंकि भूमि आदि से ही कण्टक उत्पन्न होता है, मृत्पिण्ड आदि से नहीं।१२६ भूमि आदि निमित्तों की निमित्तता भी स्वाभाविक है।१३७ प्रत्येक वस्तु में उसी प्रकार स्वभाव कार्य करता है जिस प्रकार वय के अनुसार बाल, कुमार, यौवन आदि अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। दूध से दही, मक्खन, घृत आदि अवस्थाएँ भी स्वभाव से होती हैं। यदि ये स्वभाव से नहीं हों तो बाद में कभी भी नहीं हो सकती। जैसे कि वन्ध्या का पुत्र कभी नहीं हुआ, अत: बाद में भी होता हुआ नहीं देखा जाता है। इसी प्रकार मृद् आदि में विद्यमान घट आदि की अपने निमित्तों की सहायता से स्वाभाविक उत्पत्ति होती है, आकाश आदि में नहीं होती। अर्थात् जिसमें जो स्वभाव है उससे वही वस्तु प्रकट होती हैं।२३८ स्वभाव से ही अत्यधिक निकटवर्ती अंजन और दूरवर्ती पर्वत का चक्षु आदि के द्वारा ग्रहण नहीं होता। इसी प्रकार कोई वस्तु अत्यन्त अनुपलब्धि स्वभाववाली होती है, जैसे कि आत्मा आदि। इसलिए पुरुष के कामाचार या प्रयत्न आदि से कुछ भी नया उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। चरक संहिता में कहा है- कटुक रस वाला चित्रक पकाने पर उष्णवीर्य युक्त हो जाता है तथा उससे युक्त दन्ती अपने स्वभाव से विरेचन करती है।९३९ मिट्टी से घटादि की अभिव्यक्ति या अनभिव्यक्ति स्वभाव वाला घट भी वस्तुत: पृथ्वी आदि का ही स्वभाव है, जैसे कि जल स्वभाव से द्रव होता है, पृथ्वी स्थिर होती है, वायु चंचल होती है, आकाश अमूर्त होता है, अग्नि उष्ण होती है।१४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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