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स्वभाववाद १६७ तपने का है, शशि का स्वभाव शीतलता का है। सिद्ध भगवान का स्वभाव अरूपी है, देवता का स्वभाव अतुल सुख भोगने का है तथा नारकीय जीवों का स्वभाव दस प्रकार की क्षेत्र वेदना सहने का है।
धर्मास्तिकाय का स्वभाव चलना है, अधर्मास्तिकाय का स्वभाव ठहरने का है, आकाशास्तिकाय का स्वभाव विकास करने का है, काल द्रव्य का स्वभाव वर्तना करना है, जीवास्तिकाय का स्वभाव उपयोग करना है, पुद्गलास्तिकाय पूरण-गलन स्वभाव वाला है। नव तत्त्वों एवं छ: कायों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। भवी-अभवी का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। बिना स्वभाव की दुनियाँ में कोई वस्तु नहीं है अर्थात् स्वभाव के कारण ही सम्पूर्ण सृष्टि का विकास हुआ है। स्वभाववाद का निरूपण एवं निरसन : विभिन्न ग्रन्थों में मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं खण्डन
मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने द्वादशारनयचक्र नामक विशाल कृति में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं खण्डन किया है, जो अपने आपमें अतीव महत्त्वपूर्ण है। इसमें स्वभाववाद का प्राचीन स्वरूप अभिव्यक्त हुआ है। मल्लवादी कहते हैं कि स्वभाववाद के अनुसार सभी वस्तुएँ स्वत: होती हैं। जो पुरुष आदि होते हैं, वे स्वतः होते हैं। पाणिनि व्याकरण परं कात्यायन रचित वार्तिक में भी कहा गया है- 'यथा सर्वभावा स्वेन भावेन भवन्ति स तेषां भावः ५३२ इस आधार पर जो जिस भाव से होता है वह उसका आत्मीय भाव या स्वभाव कहलाता है। समस्त पदार्थों की प्रकृति या बीज स्वभाव है। स्वभाव को स्वीकार किए बिना पुरुष आदि का स्वत्व में सत्त्व नहीं हो सकता। यदि व्रीहि आदि के पाक में काल को कारण माना जाता है तब भी स्वभाव का ही ग्रहण होता है। युगपद् या क्रम से घट रूप आदि या व्रीहि, अंकुर आदि की उस-उस रूप में उत्पत्ति होने से स्वभाव को ही स्वीकार करना होता है'युगपदयुगपद् घटरूपादीनां वीांकुरादीनां च तथा तथा भवनादेव तु स्वभावोऽभ्युपगतः १३३ जैसा कि तुल्य भूमि, जल आदि के होने पर कण्टकादि भिन्न स्वरूप की वस्तुएँ प्रत्यक्षत: देखी जाती हैं। काँटे आदि ही तीक्ष्ण होते हैं, पुष्पादि में वैसा गुण नहीं होता। जैसा कि अन्यत्र भी कहा है
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च।
स्वभावतः सर्वमिंद प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।। केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां को वा करोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान्।
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