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१६६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
विकास स्वभाव सो तो प्रत्यक्ष है खग में।। वर्तना लक्षण काल उपयोग जीव माही।
पूरण-गलण गुण पुद्गल वरग में।। नव तत्त्व छहों काय भव्यादि-अभव्य सन।
बिन ही स्वभाव कोई वस्तु नहीं जग में।। अर्थात स्वभाववादी कहते हैं कि काल क्या कर सकता है? स्वभाव के बिना दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। स्वभाव के कारण ही स्त्री के मूंछ नहीं होती, बंध्या नारियों को संतान नहीं होती। करतल अर्थात् हाथ के तले में रोम नहीं आते और नस में हड्डी नहीं होती है। स्वभाव के कारण ही वृक्ष के पत्ते अलग-अलग होते हैं। फूल अलग होते हैं। स्वभाव से ही जलचर जीव पानी में ही तैरते हैं एवं स्थलचर अर्थात् भूमि पर चलने वाले जीव भूमि पर ही चलते हैं। स्वभाव के कारण ही तरह-तरह के पक्षी आकाश में गमन करते हैं।
बेर एवं बबूल के काँटे को तीक्ष्णता कौन. देता है? हंस को सरलता कौन सिखाता है, बगुले में कपट भाव कौन लाता है, मोर के पंख को विचित्र कौन करता है, कोकिला पक्षी का कण्ठ मधुर एवं कौवे का कण्ठ कठोर कौन बनाता है? ये सब स्वभाव के ही कारण होता है। जहर को धारण करने वाले सर्प के सिर में मणि रहती है, जो तुरन्त जहर को नष्ट कर देती है। सांप का स्वभाव विष करने का है, दूध पीकर भी वह जहर बनाता है अर्थात् सांप के मुँह में जहर एवं मस्तक में विषहर मणि, यह विचित्रता स्वभाव से ही है।
पृथ्वी का स्वभाव कठिन है, पानी का स्वभाव शीतल है। पवन का स्वभाव चंचल है तथा अग्नि का स्वभाव गरम है। सूंठ का स्वभाव वायु विकार को शांत करना है तथा हरड़ का स्वभाव विरेचन करना है। सिंह का स्वभाव साहसिक है तो बकरे का स्वभाव निर्बलता का है। आंवले का स्वभाव कडुवा है एवं गन्ने के रस का स्वभाव मधुर मीठा है। पत्थर का स्वभाव डूबने का है तथा मच्छ का स्वभाव अथाह पानी में तैरने का है।
कान का स्वभाव सुनना है, आँख का स्वभाव देखना है, नाक का स्वभाव सुगन्ध लेना है, जिह्वा का स्वभाव स्वाद लेना है, शरीर का स्वभाव आठ प्रकार के स्पर्श को समझने का है। मन का स्वभाव चंचल है, मुख का स्वभाव बोलना है। दोनों हाथों का स्वभाव काम करने का है, पैरों का स्वभाव घूमने का है। सूर्य का स्वभाव
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