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________________ १६२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कोई कहते हैं कि 'यह लोक किसी देवता द्वारा बनाया गया है और दूसरे कहते हैं कि 'ब्रह्मा ने लोक बनाया है' ईश्वरवादी कहते हैं कि जीव-अजीव, सुख तथा दुःख से युक्त यह लोक ईश्वरकृत है तथा कुछ इसे प्रधानादिकृत मानते हैं। ___'प्रधानादि' शब्द पर टीका करते हुए आचार्य शीलांक (९-१०वीं शती) लिखते हैं- 'आदि ग्रहणात्स्वभावादिकं गृह्यते, ततश्चायमर्थः स्वभावेन कृतो लोकः कण्टकादितैक्ष्ण्यवत्। तथाऽन्ये नियतिक्रतो लोको। १२३ यहाँ 'आदि' शब्द से स्वभाववाद, नियतिवाद आदि का ग्रहण है। स्वभाववाद के अनुसार यह लोक स्वभावकृत है तथा नियतिवाद के अनुसार यह लोक नियतिकृत है। स्वभाववाद की सिद्धि में कहा है कि जैसे कण्टक की तीक्ष्णता स्वभावकृत है उसी तरह यह समस्त जगत् स्वभावकृत है किसी कर्ता द्वारा किया हुआ नहीं है। सूत्रकृतांग टीका में तज्जीवतच्छरीरवादी, बौद्ध, सांख्य-मत में अनुमोदित स्वभाववाद को प्रस्तुत कर स्वमत में गृहीत स्वभाव के स्वरूप को कहा गया है। तज्जीवतच्छरीरवादी मत- कोई धनवान, कोई दरिद्र, कोई सुन्दर, कोई कुरूप, कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई सुरूप, कोई मन्दरूप, कोई रोगी, कोई नीरोग, इस प्रकार की जगत् में विचित्रता क्यों होती है। २४ . ___ तज्जीवतच्छरीरवादी समाधान करते हुए कहते हैं कि यह सब स्वभाव से होता है। क्योंकि किसी शिलाखण्ड की देव प्रतिमा बनाई जाती है और वह प्रतिमा कुंकुंम, अगरु, चन्दन आदि विलेपनों को भोगती है और धूप आदि के सुगंध को भी अनुभव करती है तथा दूसरे शिलाखण्ड पर पैर धोना आदि कार्य किए जाते हैं। इन दोनों शिलाखण्डों की इस प्रकार की अवस्था में शुभाशुभ कर्मोदय कारण नहीं है, अपितु स्वभाव से ही है। अतः सिद्ध होता है कि स्वभाव से ही जगत् की विचित्रता होती है। कहा भी है- कण्टक की तीक्ष्णता, मोर की विचित्रता और मुर्गे का रंग, यह सब स्वभाव से ही होते हैं।१२५ बौद्ध मत- बौद्ध दर्शन में वस्तु का प्रतिक्षण निर्हेतुक विनाश स्वीकार किया गया है। यह निर्हेतुता वस्तु के स्वभाव को ही व्यक्त करती है अर्थात् वस्तु स्वभाव से ही क्षणिक है अथवा विनाश को प्राप्त होती है। जैसा कि कहा है 'निर्हेतुत्वाद्विनाशस्य स्वभावादनुबन्धिता २६ सांख्य मत- सांख्यदर्शन में प्रधान प्रकृति से महत् अंहकारादि की उत्पत्ति स्वीकृत है। किन्तु अचेतन प्रकृति पुरुषार्थ के प्रति प्रवृत्ति नहीं कर सकती। यदि इसे प्रकृति का स्वभाव ही समझा जाए तो स्वभाव को ही बलवान मानना होगा, क्योंकि स्वभाव प्रधानादि प्रकृति को भी नियन्त्रित करता है।१२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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