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स्वभाववाद १६१ नहीं है। स्वभाव उस कारण की वह क्षमता (सामर्थ्य) है जो कार्य रूप में प्रकट होती है। यही कारण है कि पकने की क्षमता (स्वभाव) से रहित कडु अश्वमाष आदि का पाक लाख प्रयत्न के बावजूद भी संभव नहीं बन पाता। कभी एक ही कारण से अनेक कार्य भी होते हुए देखे जाते हैं। उन सभी कार्यों में तत्कार्यजननपरिणति कारण है। . परिणतियों में वैलक्ष्ण्य होने से उसके कार्यों में विलक्षणता आती है। स्वभाववादी ने प्रतिपक्षी की शंकाओं का परिहार करते हुए स्वभाव की कारणता को इस तरह प्रस्तुत किया है कि सहकारी कारणों को पृथक् से मानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। शास्त्रवार्तासमुच्चयकार हरिभद्रसूरि महान् दार्शनिक थे। उनके ग्रन्थ में स्वभाववाद का अतीव सूक्ष्म विवेचन प्राप्त होता है। वे स्वभाववाद का पक्ष रखते हुए कहते हैंपूर्व-पूर्व उपादान परिणाम उत्तरोत्तर होने वाले तत्तत् उपादेय परिणामों के प्रति कारण हैं। जैसे- बीज का जो चरम क्षणात्मक परिणाम होता है, उससे अंकुर का प्रथम क्षणात्मक परिणाम उत्पन्न होता है। फिर अंकुर के प्रथम क्षण से द्वितीय और द्वितीय क्षण से तृतीय क्षण की उत्पत्ति होती है। अतः उपादान के क्षण परिणाम उपादेय के क्षण परिणामों के प्रति तत्तद्व्यक्तित्व रूप से कारण बनते हैं। आचारांग सूत्र की शीलांक टीका में
आचारांग सूत्र की शीलांक (९-१०वीं शती) टीका में क्रियावादियों के भेद करते हुए कालस्वभावादि की चर्चा की गई है। आचार्य स्वभाववाद के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'अपरे पुनः स्वभावादेव संसार-व्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः? वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः ११८ अर्थात् कुछ अन्य दार्शनिक स्वभाव से ही संसार-व्यवस्था को स्वीकार करते है। स्वभाव से तात्पर्य वस्तु का स्वतः तथा परिणत रूप होना है। सभी भूत स्वभाव से ही प्रवृत्त और निवृत्त होते हैं।११९ किसके द्वारा मृगनयन आंजे गए हैं और कौन मयर को अलंकृत करता है। कौन कमल में पत्तों के दल को सन्निचय करता है और कौन श्रेष्ठ कुल के पुरुष में विनय पैदा करता है।१२० यहाँ कौन का उत्तर स्वभाव के अतिरिक्त कोई नहीं है। अत: स्वभाव इन विचित्रताओं में कारण है। सूत्रकृतांग की शीलांक टीका में सूत्रकृतांग में सृष्टि के संबंध में विभिन्न मान्यताओं का उल्लेख प्राप्त होता है
'देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेति आवरे "२२
'ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे जीवाजीवसमायुक्तः सुखदुःखसमन्वितः १२२
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