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________________ १६० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण (ii) तत्त व्यक्ति रूप से हेतुहेतुमद्भाव मानने का एक दुष्फल यह होगा कि तज्जातीय कार्य से तज्जातीय कारण के अनुमान का भंग हो जाएगा, क्योंकि अनुगत रूप से हेतुहेतुमद्भाव न होने के कारण तज्जातीय कार्य में तज्जातीय कारण की अनुमापकता में कोई प्रयोजक न होगा । ११५ समाधान- 'सादृश्यतिरोहितवैसादृश्येनाऽङ्कुरादिना तादृशबीजादीनामनुमानसंभवात् १९६ अर्थात् उत्पादक बीज क्षणों में तथा उत्पाद्य अङ्कुरक्षणों में परस्पर में अत्यन्त सादृश्य होता है, जिससे उनका वैसादृश्य तिरोहित रहता है, अतः सदृश अङ्कुर क्षणात्मक कार्य से सदृशबीजक्षणात्मक कारण का अनुमान होने में कोई बाधा नहीं होती। शंका- पूर्वोक्त क्षणों में अनुगत कार्यकारणभाव न होने पर उन बीजक्षणों में व्याप्यव्यापक भाव घटित न होगा। समाधान- हम उन क्षणों में अनुगत कार्यकारणभाव स्वीकार न करके अनुगत प्रयोज्य - प्रयोजकभाव स्वीकार करते हैं। उस प्रयोज्य - प्रयोजकभाव रूप प्रयोजक के बल पर अंकुर क्षणों और बीज क्षणों में व्याप्य - व्यापक भाव बन जाता है। शंका- उक्त क्षणों में जैसे अनुगत कार्यकारणभाव नहीं होता, उसी प्रकार अनुगत प्रयोज्यप्रयोजकभाव भी नहीं हो सकता। समाधान- यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि अनुगत कार्यकारणभाव मानने में नियत समय से पूर्व बीज से अंकुरोत्पत्ति की आपत्ति बाधक है, किन्तु अनुगत प्रयोज्य - प्रयोजक भाव मानने में ऐसी कोई बाधा नहीं है। कारण कि जो जिसका प्रयोजक होता है उससे उसकी उत्पत्ति चिर- क्षिप्र कभी भी हो सकती है। अतः अंकुरोत्पत्ति से चिरपूर्व भी अंकुर प्रयोजक की सत्ता मानने में कोई दोष नहीं होता । ११७ इस प्रकार शास्त्रवार्तासमुच्चय में प्रश्न - प्रतिप्रश्न, शंका-समाधान के रूप में हुई गहन चर्चा के माध्यम से स्वभाववाद का गूढ स्वरूप प्रकट हुआ है। यहाँ पर स्वभाव की कारण रूप में व्याख्या विभिन्न आयामों से हुई है, जिससे यह स्पष्ट है कि जीव के जीवनकाल में संभवित सभी कार्य स्वभाव के नियमन से होते हैं। अजीव पदार्थों में घटित कार्य भी स्वभाव की अपेक्षा रखते हैं । उपादानकारणगत स्वभाव ही कार्य के आकार-प्रकार तथा स्वभाव को निर्मित करता है । स्वभाववादी पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश दोनों में स्वभाव की कारणता स्वीकार करते हैं। प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव होता है, स्वभावानुसार ही वह कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होती है। अपने स्वभाव का उल्लंघन कर किसी अन्य कार्य को करना वस्तु के कार्य-क्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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