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स्वभाववाद १५९ अंकुर का जनक मानने पर सहाकारिचक्र के सन्निधान से पूर्व भी अंकुर की आपत्ति होगी। अत: स्वभाववाद को भी सहकारिचक्र मानना आवश्यक है। सहाकारि चक्र को मानने पर विलक्षण बीजत्व रूप से कारणत्व की कल्पना अनावश्यक हो जाएगी।११ क्योंकि लोकप्रसिद्ध बीज (सामान्य) के स्वरूप से अंकुरोत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं होगी।
समाधान- उपर्युक्त समाधान उचित नहीं है। कारण कि जो जिस कार्य का उपादान माना जाता है, उसमें प्रतिक्षण नये-नये परिणाम होते रहते हैं और उन परिणामों से नये-नये उपादेय परिणामों की उत्पत्ति भी होती रहती है। अतः पूर्व-पूर्व उपादान परिणामों को उत्तरोत्तर होने वाले तत्तत् उपादेय परिणामों के प्रति कारण मान लेने से स्वभाववाद में सहकारिचक्र की कल्पना अनावश्यक हो जाती है।
शंका- उपादान को लोकप्रसिद्ध सामान्य रूप से उपादेय (कार्य) का कारण मानने पर पूर्वोक्त आपत्ति (सहकारिचक्र के सन्निधान से पूर्व अंकुरोत्पत्ति) का परिहार चक्र की कल्पना के बिना नहीं हो सकता। अत: स्वभाववादी को सहकारिचक्र की कल्पना कार्योत्पत्ति में मानना ही उचित है। १२
समाधान-पूर्व-पूर्वोपादानपरिणामानामेवोत्तरोत्तरोपादेयपरिणामहेतुत्वात् १३ अर्थात् पूर्व-पूर्व उपादान परिणामों को उत्तरोत्तर होने वाले तत्तत् उपादेय परिणामों में हेतुहेतुमद्भाव मानने से कालवाद के प्रवेश की आशंका भी समाप्त हो जाती है। यथा- सामान्य बीज से वृक्षोत्पत्ति कार्य में कतिपय वर्ष की अवधि की कारणता के बिना आम्र-वृक्ष नहीं होता है। इसमें काल की कारणता प्रविष्ट है, किन्तु पूर्व क्षण के बीज के स्वरूप को उत्तर क्षण के वृक्ष के स्वरूप में कारण मानने पर काल रूप कारण का हस्तक्षेप कार्य में नहीं होता।
शंका- (i) स्वभाववादी के अनुसार बीज का जो चरम क्षणात्मक परिणाम होता है उससे अंकुर का प्रथम क्षणात्मक परिणाम उत्पन्न होता है। द्वितीय, तृतीय आदि क्षण परिणामों की उत्पत्ति चरम क्षणात्मक परिणाम से न होकर अंकुर के प्रथम क्षण से द्वितीय और द्वितीय क्षण से तृतीय क्षण की उत्पत्ति हुई है। अत: उपादान के क्षण परिणामों को उपादेय के क्षण परिणामों के प्रति तत्तद्व्यक्तित्व रूप से ही कारण मानना होगा। किन्तु यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि अनुगत रूप (बीज के चरम क्षण की अंकुर के प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि क्षणों में अनुवृत्ति) से उनमें हेतुहेतुमद्भाव की कल्पना की जाएगी तो अत्तद्व्यावृत्ति से (प्रथम, द्वितीय, तृतीय क्षणों को पृथक् किए बिना) उन क्षणों का कार्योत्पत्ति में अनुगमन होगा तथा उन क्षणों के परस्पर-अप्रवेश से प्रवेश विनिगमना विरह रूप महान् गौरव उत्पन्न होगा।१४
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