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१५८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१०. शंका - मिट्टी से घट, सकोरा, गमला, मूर्ति, शराव आदि विविध पात्र एवं खिलौने आदि अनेक प्रकार के कार्य होते हैं। इन सभी कार्यों के लिए मिट्टी का सामान्य स्वभाव कारण है या मिट्टी का विशेष स्वभाव ? चूंकि स्वभाव विशेष स्वीकार करने पर ही कार्य विशेष उत्पन्न होंगे, अतः स्वभाव में वैलक्षण्य मानना आवश्यक है। १०६
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समाधान- यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि स्वभाव का अर्थ है- 'स्वस्य भावः कार्यजननपरिणतिः अर्थात् स्व का कार्य के अनुकूल परिणत होना। स्वभावजन्य कार्योत्पत्ति से तात्पर्य है प्रत्येक वस्तु तत्तत् कार्य के अनुकूल परिणाम ग्रहण करके तत्तत् कार्य को उत्पन्न करती है और वस्तु का यह परिणाम ग्रहण उस वस्तु के अधीन ही होता है। अतः मिट्टी से जितने कार्य उत्पन्न होते हैं उन सभी की उत्पादनानुकूल अलग-अलग परिणति उसमें होती है, उन परिणतियों में वैलक्षण्य होने से उसके कार्यों में भी विलक्षणता होती है । १०८
अतः स्वभाव से वस्तु को कार्योत्पादक मानने पर उस वस्तु से होने वाले कार्यों में वैलक्षण्य की अनुपपत्ति का आपादन नहीं किया जा सकता। किस वस्तु में किस कार्य के अनुकूल परिणति होती है, इसका निश्चय तो उस वस्तु से होने वाले कार्यों से ही हो सकता है।
स्वभाववादी द्वारा स्वयं आपत्ति कर उसका निवारण करते हुए हरिभद्रसूरि (७००-७७० ईस्वीं शती) कहते हैं- 'बीज का बीजत्व स्वभाव ही अंकुरित होने में कारण है' यह बीज का लोक सिद्ध रूप है। इस लोक सिद्ध स्वरूप से ही कार्योत्पत्ति मानी जाएगी तो बीज से नियत समय के पूर्व भी अंकुर की उत्पत्ति की आपत्ति होगी । बीज अंकुर का उत्पादन तभी कर सकता है जब अंकुर के अन्य सभी कारणों का भी उसे सन्निधान प्राप्त हो, किन्तु बीजत्व से ही अंकुरोत्पत्ति मानेंगे तो कारणों के सन्निधान से पूर्व ही बीज का अंकुरित होना संभव बन जाएगा । १०९
इस आपत्ति निवारणार्थ 'सहकारिचक्रानन्तर्भावेन विलक्षणबीजत्वेनैवाङ्कुर- हेतुत्वौचित्यात् १० से यही मानना उचित है कि बीज बीजत्व रूप से अंकुर का जनक नहीं होता, अपितु विलक्षण बीजत्व रूप से अर्थात् अंकुरानुकूल अपनी परिणतिरूप स्वभाव से जनक होता है।
शंका (समग्रकारणवादी ) - पूर्वोक्त बीज की विलक्षणता में सहकारिचक्र को आधायक मानना होगा, अन्यथा अतिशयहीन बीज ( लोक सिद्ध स्वरूप) को
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