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________________ १४० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सिद्धि में पुरुषार्थ को प्रधान कारण मानते हैं तो दूसरे दैव को प्रधानता देते हैं। 'स्वभावं भूतचिन्तकाः' द्वारा स्वभाव को कार्य-सिद्धि का हेतु स्वीकार करने वाले भूतचिन्तकों का मत भी प्रकाश में आया है। ये भूत-चिन्तक अर्थात् स्वभाववादी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश के योग से जगत् एवं जगत् के पदार्थों की रचना मानते हैं। जगत् का सर्जन और विनाश दोनों पंचभूतों के मिलने और बिछुड़ने से होता है। पंचभूतों का एक और अनेक होना स्वभाव से ही होता है, अत: कहा है धातवः पंच भूतेषु, खं वायुयोतिषो धरा। ते स्वभावेन तिष्ठन्ति, वियुज्यन्ते स्वभावतः।।१२ सभी भाव और अभाव स्वभावकृत हैं तथा स्वभाव से ही प्रेरित होकर शुभ, अशुभ आदि सभी गुण मनुष्य में प्रवेश करते हैं। प्रज्ञा और शांति भी स्वभाव से प्राप्त होती है तथा दृष्टि पथ में आने वाली सभी वस्तुएँ भी स्वभाव से बनती है। इन सबमें पुरुषार्थ की कोई आवश्यकता नहीं है, अत: 'मैंने यह किया' इस प्रकार का अभिमान वृथा है। कई बार अनिष्ट की निष्पत्ति और इष्ट की निवृत्ति बिना प्रयत्न के स्वाभाविक रूप से देखने में आती है, किन्तु कुछ साधु-असाधु मनुष्य अनिष्ट और इष्ट के प्रति आत्मा को कर्ता स्वीकार करते हैं। तात्पर्य यह है कि बिना स्वभाव के पुरुषार्थ से ही सब कुछ मानने वालों की प्रज्ञा दोषयुक्त है।५।। यदि आत्मश्रेय के लिए मनुष्य स्वयं निश्चय से कर्ता हो तो मनुष्य की हर एक प्रवृत्ति सफल होनी चाहिए, कहीं भी निष्फलता नहीं होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं होता। अत: स्वभाव की प्रधानता माननी चाहिए। स्वभावादेव तत्सर्वमिति मे निश्चिता मतिः। आत्मप्रतिष्ठा प्रज्ञा वा, मम नास्ति ततोऽन्यथा।। सुख-दुःख आदि सभी विषय स्वभाव से ही बनते हैं। आत्मप्रतिष्ठा और प्रज्ञा स्वभाव के सिवाय अन्य प्रकार से नहीं बन सकती। प्राणियों के जन्म और मरण स्वभाव से नियत है। अमुक ने अमुक का वध किया और अमुक ने अमुक का वध नहीं किया, ये दोनों ही मान्यताएँ असत्य हैं। महाभारत में जहाँ एक स्थान पर स्वभाववाद का निरूपण प्राप्त होता है, वहीं दूसरे स्थान पर निरसन भी समुपलब्ध है, यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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