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स्वभाववाद १४१ यस्तु पश्यान् स्वभावेन विनाभावमचेतनः।
पुष्यते च पुनः सर्वान् प्रज्ञया मुक्तहेतुकान्।।" जो यह समझता है कि यह जगत् स्वभाव से ही उत्पन्न है, इसका कोई चेतन मूल कारण नहीं है। वह अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ तर्कयुक्त बुद्धि द्वारा हेतुरहित वचनों का बार-बार पोषण करता रहता है।
इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध न होने से ईश्वर जैसा कोई जगत् का कारण नहीं है, वस्तुगत स्वभाव ही जगत् का कारण है। इस प्रकार की कारणता स्वीकार करने वाले स्वभाववादी ईश्वर के अस्तित्व को उसी प्रकार नकारते हैं जिस प्रकार मूंज के भीतर रही हुई सींक की सत्ता को। कहने का तात्पर्य यह है कि मुंज के भीतर स्थित दिखायी न देने वाली सींक मूंज के चीर डालने पर अवश्य उपलब्ध होती है, इसी तरह समस्त जगत् में व्याप्त परमात्मा इन्द्रियों द्वारा दिखाई नहीं देने पर भी दिव्य ज्ञान के द्वारा अवश्य प्रत्यक्ष होते हैं। अतः स्वभाववादियों का मन्तव्य उचित नहीं है।
स्वभाववादी को नास्तिक कहते हुए उनके मार्ग को अकल्याणकारी माना है। जिसे महाभारत के निम्न श्लोक प्रमाणित करते हैं
ये चैनं पक्षमाश्रित्य निवर्तन्त्यल्पमेधसः। स्वभावं कारणं ज्ञात्वा न श्रेयः प्राप्नुवन्ति ते।। स्वभावो हि विनाशाय मोहकर्म मनोभवः।
निरुक्तमेतयोरेतत् स्वभावपरिभावयोः।।५१
अर्थात् जो मन्दबुद्धि मानव इस नास्तिक मत का अवलम्बन करके स्वभाव ही को कारण जानकर परमेश्वर की उपासना से निवृत्त हो जाते हैं, वे कल्याण के भागी नहीं होते हैं। नास्तिक लोग जो स्वभाववाद का आश्रय लेकर ईश्वर और अदृष्ट की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनका मोह जनित कार्य है, स्वभाववाद मूढों की कल्पना मात्र है। यह मानवों को परमार्थ से वंचित करके उनका विनाश करने के लिए ही उपस्थित किया गया है।
यदि सभी कार्य स्वभाव से सम्पन्न हो जाते तो कोई भी भूमि को जोतने में, अनाज के बीजों का संग्रह करने में तथा यान, आसन और गृह-निर्माण आदि कार्यों में प्रवृत्त ही न होता। क्रीड़ा के लिए स्थान और रहने के लिए घर बनाना, रोगों का उपचार करना आदि कार्य चेतन प्राणी स्वभाव से न करके पुरुषार्थ से करते हैं।५२ इस
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