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________________ स्वभाववाद १३९ वीरयोद्धा, दानी और ईश्वरभक्त होता है । " अतः गीता में मधुसूदन अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।। ७ हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! अपने स्वभावज कर्म से बंधा हुआ तू यदि मोह से युद्ध करना नहीं चाहेगा तो भी विवश हुआ उसे करेगा। 'वैश्यस्य स्वभावप्रभवः सत्त्वरजोऽभिभवेन अल्पोदिक्तः तमोगुणः, शूद्रस्य स्वभावप्रभवः तु रजः सत्त्वाभिभवेन अत्युक्तिः तमोगुणः १८ अर्थात् सत्त्व और रजोगुण को दबाकर अल्पतमो गुण उत्पन्न होने से वैश्य तथा अधिकतम गुण उत्पन्न होने से शूद्र वर्ण होता है। कृषि, गोरक्षा और व्यापार- ये वैश्य के स्वभावज कर्म है तथा शूद्र का स्वभावज कर्म सेवा है । ३९ इस प्रकार वर्ण भेद में स्वभाव की कारणता स्पष्ट रूपेण स्वीकृत है। गीता में अन्यत्र भी स्वभाव का महत्त्व स्थापित है, यथा न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते । । ४० लोक (भूत-प्राणियों) के कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल संयोग की प्रभु ने रचना नहीं की है, अपितु स्वभाव इन सबमें प्रवृत्त हुआ है। अर्थात् स्वभाव से ही समस्त जगत् एवं कार्य संचालित हैं। रामायण में स्वभाव की कारणता आदिकाव्य 'रामायण' में भगवान् रामचन्द्र बाली की मृत्यु के अवसर पर सुग्रीव को मनुष्य और जगत् की परवशता को समझाते हुए कहते हैं- 'न कर्ता कस्यचित् कश्चिन्नियोगे नापि चेश्वरः स्वभावे वर्तते लोकः १ अर्थात् कोई भी पुरुष न तो स्वतन्त्रतापूर्वक किसी काम को कर सकता है और न किसी दूसरे को उसमें लगाने की शक्ति रखता है। यह सारा जगत् स्वभाव के अधीन है। इस प्रकार यहाँ भी सर्वत्र स्वभाव की कारणता के माध्यम से 'स्वभाववाद' प्रतिष्ठित हुआ है। महाभारत में स्वभाववाद का निरूपण एवं निरसन महाभारत में कौरव-पाण्डव की कथा के साथ-साथ प्रसंगानुसार उस समय की दार्शनिक मान्यताओं का भी प्रतिपादन हुआ है। तदनुसार कुछ लोग कार्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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