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________________ xix किया जा सकता है। इसलिए इसकी पृथक् गणना करने की आवश्यकता नहीं है। दूसरे विभागानुसार योनि को 'भव' कारण में समाविष्ट किया जा सकता है। पूर्वकृत कर्म को जैनदर्शन स्वीकार करता है, अत: उसे उक्त गाथा में स्थान दिया गया है। जैनदर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त की पहले से ही व्यवस्था होते हुए भी उसके अनेकान्तवाद एवं नयवाद सिद्धान्त के कारण सिद्धसेनसूरि ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत(कर्म) एवं पुरुष (जीव एवं उसकी क्रिया) के समुदाय को कार्य की उत्पत्ति में कारण स्वीकार किया है। जैनदर्शन में ये पाँचों कारण उत्तरकाल में पंच कारणसमवाय अथवा पंचसमवाय के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। सिद्धसेनसरि इन पाँचों का समन्वय करने वाले प्रथम जैन दार्शनिक हैं, जो इनके एकान्तवाद को मिथ्या एवं सम्मिलित रूप को सम्यक् कहते हैं। पंचकारण-समवाय का यह सिद्धान्त जैन मान्यताओं से अविरुद्ध है। इसीलिए सिद्धसेनसूरि के अनन्तर विभिन्न जैन दार्शनिकों ने पंचकारणसमवाय सिद्धान्त का तार्किक समर्थन किया है। इन दार्शनिकों में हरिभद्रसूरि (७००-७७०ई.), शीलांकाचार्य (९-१०वीं,शती) अभयदेवसूरि (१०वीं शती), मल्लधारी राजशेखरसूरि (१२-१३वीं शती), यशोविजय (१७वीं शती), उपाध्याय विनयविजय (१७वीं शती) आदि का नाम उल्लेखनीय है। आधुनिक युग में पण्डित टोडरमल, कानजी स्वामी, श्री तिलोक ऋषि जी, शतावधानी रतनचन्द्र जी, आचार्य महाप्रज्ञ आदि ने पंच समवाय के सिद्धान्त को पुष्ट किया है। सम्प्रति जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में पंचकारणसमवाय सिद्धान्त मान्य एवं प्रतिष्ठित है। जैनदर्शन सृष्टि उत्पत्ति की दृष्टि से कारणों की चर्चा नहीं करता, क्योंकि इसमें सृष्टि को अनादि अनन्त स्वीकार किया गया है। __कालादि पाँच कारणों के समुदाय को कार्य की सिद्धि में कारण स्वीकार करना जैन दर्शन की समन्वयात्मक दृष्टि का सूचक है। यह उसके व्यापक दृष्टिकोण को भी इंगित करता है। जैनदर्शन में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुष/पुरुषकार की कारणता अनेक कार्यों में सिद्ध है। जैनदर्शन के पंचकारणसमवाय में सम्मिलित काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म एवं पुरुषवाद/पुरुषकार के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय वाङ्मय में विविध प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इनको एकान्त रूप से कारण मानने वाले कालवाद आदि सिद्धान्तों के स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं होते, किन्तु डॉ. श्वेता जैन ने इनके सम्बन्ध में परिश्रमपूर्वक सामग्री जुटायी है। यहाँ कालवाद, स्वभाववाद आदि पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है। १ ग्रन्थ में लेखिका के द्वारा इन दार्शनिकों की यथास्थान चर्चा की गई है। २ इनके मन्तव्यों के उल्लेख हेतु द्रष्टव्य इस ग्रन्थ का सप्तम अध्याय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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