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________________ xviii पंचकारण समवाय की पृष्ठभूमि यथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में विभिन्न कारणवादों का उल्लेख हुआ है, कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः । । - श्वेताश्वतरोपनिषद्, १.२ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंचमहाभूत, योनि, पुरुष- इनका संयोग सृष्टि का कारण है, मात्र आत्मभाव से यह सृष्टि निर्मित नहीं हुई है, क्योंकि सुखदुःख के कारण आत्मा भी स्वयं की ईश नहीं है। यहाँ पर यह संकेत प्राप्त होता है कि श्वेताश्वतर उपनिषद् में चेतन एवं अचेतन दोनों के संयोग को सृष्टि का कारण स्वीकार किया गया है। यह उपनिषद् उस समय प्रचलित सृष्टि की उत्पत्ति एवं उसके संचालन विषयक विभिन्न मतों को प्रस्तुत कर रहा है। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, पंचभूतवाद, योनिवाद एवं पुरुषवाद इन सात मतों की ओर यहाँ संकेत मिल रहा है। उपनिषद् का यह मन्त्र विभिन्न वादों में समन्वय स्थापित कर रहा है। इसी प्रकार का समन्वय हमें सिद्धसेनसूरि (पांचवीं शती) के 'सन्मतितर्क प्रकरण' की निम्नांकित गाथा में प्राप्त होता है। कालो सहावणियई, पुव्वकयं पुरिसे कारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव, समासओ होंति सम्मत्तं ।। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत (कर्म), एवं पुरुष ( चेतन तत्त्व, आत्मा, जीव) इन्हें एकान्त कारण मानने पर ये मिथ्यात्व के द्योतक है तथा इनका सामासिक (सम्मिलित) रूप सम्यक्त्व कहलाता है। - सन्मतितर्क, ३.५३ सिद्धसेनसूरि (सिद्धसेन दिवाकर) यहाँ श्वेताश्वतरोपनिषद् में उक्त यदृच्छावाद, पंचभूतवाद एवं योनिवाद के मर्तों को अस्वीकृत करते हुए पूर्वकृत कर्म का नूतन उल्लेख कर रहे हैं। जैनदर्शन यदृच्छावाद अथवा आकस्मिकवाद को स्वीकार नहीं करता। वह कार्य-कारण व्यवस्था को अंगीकार करता है। पंचभूत नाम जैन दर्शन में प्रचलित नहीं है, इनका समावेश पृथ्वीकायिकादि जीवों एवं पुगलों में हो जाता है। जैन दर्शन द्रव्य की कारणता को अंगीकार करता है, जिसमें पुद्गल द्रव्यों का समावेश हो जाता है। योनि का तात्पर्य है उत्पत्ति स्थान । इसका समावेश पुरुष ( चेतन तत्त्व) एवं स्वभाव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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