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कालवाद एवं जैनदर्शन में काल की कथंचित् कारणता
कालवाद से आशय है ऐसी विचारधारा जो काल को ही कारण मानकर समस्त कार्य उसी से निष्पन्न होना स्वीकार करती है। इस विचारधारा का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता, किन्तु भारतीय परम्परा में इसकी गहरी जड़ें रही हैं। अथर्ववेद, नारायणोपनिषद्, शिवपुराण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में तो काल को परमतत्त्व, परमात्मा, परब्रह्म, ईश्वर आदि स्वरूपों में प्रतिष्ठित किया गया है। अथर्ववेद के १९वें काण्ड के ५३-५४ वें सूक्तों को कालसूक्त के नाम से जाना जाता है। इनमें कहा गया है कि काल ने प्रजा को उत्पन्न किया, काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया, स्वयम्भू कश्यप काल से उत्पन्न हुए हैं तथा तप भी काल से उत्पन्न हुआ। काल सभी का ईश्वर और प्रजापति का पिता है। नारायणोपनिषद् में काल को नारायण कहा गया है। अक्ष्युपनिषद् में काल को समस्त पदार्थों का निरन्तर निर्माता कहा गया है- "कालश्च कलनोद्युक्तः सर्वभावानारतम्"। माण्डूक्योपनिषद् पर रचित गौडपादकारिका (१.८) में कालवाद का स्पष्ट उल्लेख हुआ है- "कालात्प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तका:"। शिवपुराण भी कहता है कि काल से ही सब उत्पन्न होता है तथा काल से ही विनाश को प्राप्त होता है। काल से निरपेक्ष कहीं कुछ नहीं है। विष्णुपुराण में उल्लेख है कि कालस्वरूप भगवान् अनादि हैं और इनका अन्त भी नहीं होता। श्रीमद्भागवत में निरूपित है कि पुरुषविशेष ईश्वर काल को उपादान कारण बनाकर अपने आप से विश्वरूप सृष्टि की रचना करता है। महाभारत को विश्वकोष कहा जाता है, अतः कालवाद के भी संकेत इसमें प्राप्त होते हैं। महाभारत में निगदित है कि स्थावर-जंगम प्राणी सभी काल के अधीन हैं। सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र आदि सभी का कर्ता काल है। सृष्टिगत कार्यों के साथ-साथ काल स्वयं सृष्टि का रचनाकार और संहारकर्ता है। श्रीमद्भगवद्गीता (११.३२) में श्रीकृष्ण ने स्वयं को काल कहा है। वे अर्जुन से कहते हैं-"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।" सारी ज्योतिर्विद्या कालाश्रित है। काल के ही आधार पर ज्योतिर्विद्या में गणित एवं फलित निष्पादित किए गये हैं।
काल: प्रजा असृजत, कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात् तपः कालादजायत।। - अथर्ववेद, काण्ड १९, अध्याय ६, सूत्र ५३, मंत्र १०
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