SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण वैसा स्वरूप पं. ओझा ने परिणामवाद के अन्तर्गत निरूपित किया है। 'परिणाम: स्वभावत: २३ वाक्य से भी पं. ओझा द्वारा स्वभाववाद को परिणामवाद कहना युक्तिसंगत प्रतीत होता है, किन्तु स्वभाववाद को यदृच्छावाद, नियतिवाद एवं पौरुषी प्रकृतिवाद मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। इस संबंध में यह भी चिन्तन का विषय है कि जब भारतीय दर्शन में यदृच्छावाद, नियतिवाद एवं प्रकृतिवाद की स्वतन्त्र सिद्धान्तों के रूप में स्थापना हो चुकी थी तथा उनकी अनेक ग्रन्थों में चर्चा भी प्राप्त होती है तब ऐसी स्थिति में कम से कम यदृच्छावाद एवं नियतिवाद को तो स्वभाववाद में सम्मिलित करना कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता है। पं. ओझा की अपने मन्तव्य में संभव है व्यापक दृष्टि रही हो तथापि उनके इस मन्तव्य से प्राचीन साहित्य में चर्चित एवं एक दूसरे का खण्डन करने वाले स्वभाववादी, नियतिवादी एवं यदृच्छावादी की पृथक मान्यताओं को सुरक्षित रखना भी आवश्यक है। जिसके लिए इन्हें पृथक् मानना उचित है। उपनिषद् में स्वभाववाद की चर्चा श्वेताश्वतरोपनिषद् में जगदुत्पत्ति के संबंध में वेदविहित अनेक कारणों की चर्चा प्राप्त होती है, यथा 'काल: स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुण इति चिन्त्या २४ ____ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष इन कारणों पर विचार करके जगत् के संबंध में इनकी कारणता अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण माना है। इन कारणों के संबंध में किया गया यह चिन्तन वैदिक काल में इन सभी वादों के विकसित रूप प्राप्त होने का संकेत करता है। यहाँ स्वभाववाद का प्रसंग होने से स्वभाव की कारणता के संबंध में विस्तार से चिन्तन किया जा रहा है। इस मंत्र के शांकर भाष्य में स्वभाव को इस प्रकार परिभाषित किया है- 'स्वभावो नाम पदार्थानां प्रतिनियता शक्तिः, अग्नेरौष्ण्यमिव' अर्थात् पदार्थों की नियत शक्ति का नाम स्वभाव है, जैसे- अग्नि का स्वभाव उष्णता। यह प्रतिनियत शक्ति ही जगदुत्पत्ति में कारण है। उपर्युक्त भावों के सदृश इस उपनिषद् में एक श्लोक और प्राप्त होता हैस्वभावमेके कवयो वदन्ति, कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः। देवस्यैष महिमा तु लोके, येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्।।२५ अर्थात् कितने ही बुद्धिमान लोग स्वभाव को जगत् का कारण बताते हैं, उसी प्रकार कुछ दूसरे लोग काल को जगत् का कारण बतलाते हैं। ये लोग मोहग्रस्त हैं, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy