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________________ यदैव यावदथो यतो वा तदैव तत्तावदथो ततो वा । प्रजायते ऽस्मिन्नियतं नियत्याक्रान्तं हि पश्याम इदं समस्तम्।। जब भी, जो, जितना, जिससे, जैसे हुआ है, तब ही, वह, उतना, उससे, वैसे ही होता है। इस प्रकार इस संसार में सब कुछ नियत रूप से उत्पन्न होता है और नियति से आक्रान्त ही सब कुछ प्राप्त होता है। उदाहरण से स्पष्ट करते हुए पं. ओझा ने कहा है स्वभाववाद १३५ पुरा तिलात् तैलमजायतैव तज्जायतेऽद्यापि जनिष्यते च । अत्रापि जातं बहुदूरदेशान्तरेऽपि तत् तद्वदुपैति जन्म।।" प्राचीन काल में भी तिलों से तेल होता था, आज भी होता है और भविष्य में भी होता रहेगा। यहाँ भी तिलों से तेल होता है तथा दूर देशान्तरों में भी होता रहेगा । नियति के इस नियम से ही सर्वत्र पदार्थ की उत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह है कि तिलों से तेल का होना एक नियत सार्वभौम तथ्य है, जिसके साथ काल विशेष और देश विशेष का प्रतिबन्धक संबंध नहीं है। १७ नियतिवादियों के अनुसार सभी भाव नियत रूप से होते हैं। ईश्वर हो, अणु हो अथवा अन्य कोई भी हो सब नियति के वश में है। " प्राचीनकाल में पूरण, कश्यप आदि कतिपय विचारकों ने नियति को विश्व का मूल बताया है और यदृच्छावादियों. मत का उन्मूलन किया है। २० R१ ४. प्रकृतिवाद - पं. मधुसूदन ओझा ने अपरवाद अर्थात् स्वभाववाद के अन्तर्गत प्रकृतिवाद का भी समावेश किया है। उनका यह मन्तव्य है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृति में ही स्वभाव, काल और कर्म होते हैं। त्रिगुणों का परिणमन स्वभाव से होता है। 'स्वभावतस्तत्परिणामवृत्तयः निर्गुण पुरुष में स्वभाव, काल और कर्म कुछ भी नहीं होते । तात्पर्य यह है कि स्वभाववाद का संबंध प्रकृतिवाद से है। पुरुष को उन्होंने स्वभावातीत, कालातीत और कर्मातीत माना है- गुणेऽनुषक्तं पुरुषे तु निर्गुणे न स स्वभावो न च कालकर्मर्णा १२ Jain Education International यहाँ विचारणीय बिन्दु यह है कि ओझा जी ने अपरवाद के अन्तर्गत स्वभाववाद को परिणामवाद, यदृच्छावाद, नियतिवाद एवं पौरुषी - प्रकृतिवाद के रूप प्रस्तुत कर सबको स्वभाववाद माना है, वह कहाँ तक उचित है? स्वभाववाद का जो स्वरूप बुद्धचरित आदि अन्य ग्रन्थों में प्राप्त होता है, जिसके अन्तर्गत कण्टकों की तीक्ष्णता, मयूरों के चन्द्रक की विचित्रता आदि में स्वभाव की कारणता स्वीकार की है; For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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