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________________ १३४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण बेर में दो तीखे काँटे हैं, उनमें एक बिल्कुल सीधा है तथा दूसरा मुड़ा हुआ है, उसका फल गोल है, उस फल में कृमि (कीड़ा) भी होता है। यह सब कुछ स्वभाव से ही होता है। इसी प्रकार ओझा जी ने स्वभाववाद को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि हंसों को सफेद, तोतों को हरा और मयूरों को विचित्र वर्णों का कौन बनाता है। यह तो सब स्वभाव से ही उत्पन्न होता है।३ पं. ओझा ने पराशर आदि मनीषियों को इस परिणामवाद रूप स्वभाववाद की स्थापना करने वाला तथा पौरुषवाद का खण्डन करने वाला बताया है। २. यदृच्छावाद- यद्यपि यदृच्छावाद का कई दार्शनिकों ने कार्य-कारण सिद्धान्त की दृष्टि से स्वतन्त्रवाद के रूप में विवेचन किया है, किन्तु पं. मधुसूदन ओझा ने इसे स्वभाववाद का ही एक रूप स्वीकार किया है। इसे दूसरे शब्दों में 'आकस्मिकवाद' नाम भी दिया गया है। फलविशेष की प्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली प्रवृत्ति के बिना ही फल-प्राप्ति का स्वत: हो जाना यदृच्छावाद है- 'अथो यदृच्छाऽनभिसंधि- पूर्वार्थप्राप्तिः। ५ इस यदृच्छावाद को स्पष्ट करते हुए पं. ओझा ने कुछ उदाहरण दिए हैं अतर्कितोपनतमस्ति सर्व चित्रं जनानां सुखदुःखजातम्। काकस्य तालेन यथाभिघातो न बुद्धिपूर्वोऽस्ति वृथाभिमानः।। व्योम्नि प्रसन्ने प्रभवन्ति मेघा मेघे प्रसन्ने तडितोऽय्यकस्मात्। अस्त्यद्य निर्वातमथ प्रवातं लौहाश्मसर्मा अपि खात् पतन्ति।। न कारणं कार्यमिहास्ति तस्मादिदं कुतो नेति न शंकनीयम्। अतर्कितं भावय यहाभेदं यदृच्छयैवेदमुदेति सर्वम्।। ६ अर्थात् लोगों के सभी सुख-दुःख अतर्कित रूप से आते हैं। जैसे कौए का ताल (ताड़) से संबंध विचारपूर्वक नहीं होता है। वैसे ही सब कुछ काकतालीय न्याय के समान यादृच्छिक है। स्वच्छ आकाश में अकस्मात् बादलों का घिर आना, प्रसन्न मेघ में बिजलियों का चमकना, वायु का एकदम चलना या आँधी आना, आकाश से कभी लौह आदि धातु, पत्थर और सर्प का बरसना, यह सब यादृच्छिक है। कारण के नहीं होने पर भी कार्य का होना यदृच्छावादियों को अतर्कित रूप से स्वीकृत है। ३. नियतिवाद- नियतिवाद भी भारतीय दार्शनिक धरातल पर एक पृथकवाद के रूप में चर्चित है। किन्तु पं. मधुसूदन ओझा इसे भी स्वभाववाद का ही एक रूप मानते हैं। नियति के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए वे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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