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स्वभाववाद १३३ ऋग्वेद में अपरवाद के रूप में स्वभाववाद
स्वभाववाद का स्पष्ट रूप से उल्लेख वेद में नहीं मिलता है, किन्तु सृष्टि के संबंध में ऋग्वेद का नासदीय सूक्त महत्त्वपूर्ण है। इस सूक्त के प्रारम्भ में ही सृष्टि विषयक विभिन्न प्रकार के मत समुपलब्ध होते हैं
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीदजो नो व्योमायरो यत्। किमवरीवः कुह कस्या शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्।।' न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह न आसीत प्रकेतः। अर्वाग् देवा अस्य विसजनेनाथा को वेद यत आबभूव।।"
पं. मधुसूदन ओझा ने नासदीय सूक्त के उपर्युक्त अंश को आधार बनाकर सृष्टि के विषय में दश वादों का उत्थापन किया है। १. सदसद्वाद २.रजोवाद ३.व्योमवाद ४. अपरवाद ५. आवरणवाद ६. अम्भोवाद ७. अमृत-मृत्युवाद ८. अहोरात्रवाद ९. दैववाद १०. संशयवाद। इन दश वादों में अपरवाद के अन्तर्गत पं. मधुसूदन ओझा ने स्वभाववाद का ही वर्णन किया है। वे अ-पर का अर्थ 'स्व' करते हुए अपरवाद को स्वभाववाद कहते हैं। उन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपरवाद नामक पुस्तक में स्वभाववाद को चार रूपों में प्रस्तुत किया है- १. परिणामवाद २. यदृच्छावाद ३. नियतिवाद ४. पौरुषी प्रकृतिवाद।
इन चारों का संक्षिप्त परिचय प्रासंगिक होने से यहाँ प्रस्तुत है
१. परिणामवाद- स्वभाव स्वतः परिणाम गतिवाला होता है। स्वभाव अर्थात् पदार्थ स्वभाव से होते हैं। उदाहरण के लिए अग्नि की ज्वाला से ताप और प्रकाश स्वत: होते हैं। जल में शीतता तथा अन्न-जल से तृप्ति स्वभाव से होती है। जैसा कि पं. मधुसूदन ओझा ने कहा है
'स्वतः परिणामगतिः स्वभावो भावाः स्वभावात् प्रभवन्ति सर्वे। तापप्रकाशौ ज्वलनार्चिषः स्तः शैत्यं जले चान्नजलेन तृप्तिः।।
काँटों में तीखापन पशु-पक्षियों के विचित्र वर्ण आदि स्वभाव से ही प्रवृत्त होते हैं। इसमें न स्वेच्छाचार कारण बनता है और न ही प्रयत्न। इस परिणामवाद रूप स्वभाववाद का विवेचन करते हुए पं. ओझा ने कहा है
द्वौ स्तो बदर्या इह तीक्ष्णकण्टको ऋजुः स एकोस्ति परस्तु कुंचितः। फलं पुनर्वतुलमत्र च कृमिः स्वभावतः सर्वमिदं प्रजायते।।२
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