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तृतीय अध्याय
स्वभाववाद
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उपस्थापन
स्वभाव ही जगत् का आधार है, इस मन्तव्य को जगत् में 'स्वभाववाद' के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। स्वभाववादी स्वभाव को व्यापक मानते हुए क्षेत्र और काल से परे बतलाते हैं तथा सभी कार्यों को स्वभावजन्य स्वीकार करते हैं। स्वभाववाद के संदर्भ में बुद्धचरित का प्रसिद्ध श्लोक है
कः कण्टकस्य प्रकरोति तैपयं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।।
अर्थात् कांटों को तीक्ष्ण कौन बनाता है? मृगों और पक्षियों के विचित्र स्वरूप का कारण क्या है? तब कहा जाता है कि स्वभाव की ही सबमें प्रवृत्ति है, यहाँ स्वेच्छाचार या प्रयत्न क्रियान्वित नहीं होता। उक्त श्लोक को स्वभाववाद की प्रस्तुति का आधार कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि जहाँ भी स्वभाववाद की चर्चा हुई है वहाँ यह श्लोक निश्चित रूप से उद्धृत हुआ है। उदाहरण के रूप में अभयदेवसूरि की सन्मति-तर्क की तत्त्वबोधविधायिनी टीका', शास्त्रवार्ता समुच्चय आदि संस्कृत ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख सम्प्राप्त है।
स्वभाववाद के विशेष ग्रन्थ के अभाव में सम्प्रति समुपलब्ध विभिन्न स्रोतों से स्वभाव एवं स्वभाववाद की चर्चा करने का प्रयास इस अध्याय में किया जा रहा है। वेद, उपनिषद्-साहित्य, पुराण-वाङ्मय, भगवद्-गीता, रामायण-महाभारत आदि के साथ विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों एवं जैनागमों के आधार पर इस अध्याय में 'स्वभाववाद' के स्वरूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा।
स्वभाववादियों की एकांगी अवधारणा का प्राय: सभी दार्शनिकों ने खण्डन किया है। तत्त्वसंग्रह, माठरवृत्ति, न्यायकुसुमांजलि आदि जैनेतर ग्रन्थों में स्वभाववाद का निराकरण देखा जाता है। विशेषावश्यकभाष्य, सन्मतितर्क-प्रकरण एवं उस पर अभयदेवसूरि विरचित टीका, हरिभद्रसूरिकृत शास्त्रवार्ता समुच्चय, धर्मसंग्रहणि आदि में स्वभाववाद का पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापन कर स्वभाव को एकान्त कारण मानने का खण्डन किया है।
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